पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३७३

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कामना हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितंमुखम् । -ईशोपनिषत् नव राज्यं न राजासीनच दंडो न दांडिकः । धर्मेणव प्रजाः सर्वाः रक्षन्तिस्मपरस्परम ।। पाल्यमानास्तथाऽन्योन्यं नरा धर्मेण भारत । दैन्यं परमुपाजग्मुस्ततस्तान् मोह आविशत् ॥ -महाभारत कामना में फूलों के उस द्वीप की कथा है जहां के निवासी-'यथा लाभ सन्तुष्ट'-'तारा की सन्तान' हैं। सौमनस्य और सहकारिता उनके जीवन दर्शन के मन-प्राण हैं : और, आवश्यकताओं मे कृत्रिम-वृद्धि से 'तारा सन्तान' अभावों का सृजन नहीं करते । अर्थमूल संस्कृति के संक्रमण से वहां वे क्लेश प्रस्तुत होने लगे जिनका हेतु 'उस चमकीली वस्तु' में निहित रहता है जिसे स्वर्ण कहते हैं। पूज्य पिताश्री ने ईशोपनिषद् और महाभारत से जो उद्धरण ऊपर दिए है वे इस प्रसंग को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। कामना लिखने के बाद उन्होंने वह अंगूठी भी उतार दी जिस पर पितामह का मानिक रहने से कुछ ममत्व था : और, ताई जी से कहा 'भाभी यह पृथ्वी का सुन्दर पाप नहीं रखूगा'। आज के विकृत सामाजिक आचरणों का वह चित्र भी कामना में है जो स्पष्ट होता जा रहा है।