पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३८०

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लीला--बहन, मैंने कुछ नहीं समझा। कामना-तू कुछ न समझ, बस, केवल चली जा। [लीला सिर झुकाकर चली जाती है] -मै क्या चाहती हूँ ? जो कुछ प्राप्त है, इससे भी महान । वह चाहे कोई वस्तु हो। हृदय को कोई करो रहा है। कुछ आकांक्षा है; पर क्या है ? इसका किसी को विवरण नहीं देना चाहती। केवल वह पूर्ण हो, और वहां तक, जहाँ तक कि उसकी सीमा हो । बस- [दूर पर वंशी की ध्वनि, कामना इधर-उधर चौंककर देखने लगती है, समुद्र में एक छोटी-सी नाव आती दिखायी पड़ती है, एक युवक बैठा डाँड चला रहा है, कामना आश्चर्य से देखती है, नाव तौर पर आकर लगती है] -है, यह कौन ! मै क्यों झुकी जा रही हूँ ? और, सिर पर इसके क्या चमक रहा है, जो इसे बड़ा प्रभावशाली बनाये है। इसका व्यक्तित्व ऐसा है कि मैं इसके सामने अपने को तुच्छ बना दूं, और अपने को समर्पित कर दूं। [कुछ सोचती है, युवक स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखता हुआ बांसुरी बजाता है, कामना उठती है और फूल इकट्ठे करती हैं, अकस्मात् उसके ऊपर बिखेर देती है, युवक पैर उठाता है कि नीचे उतरे, कामना उसका हाथ पकड़ कर नीचे ले आती है, युवक अपना स्वर्ण-पट्ट खोलकर युवती कामना के सिर पर बाँधता है, और दोनों एक दूसरे को देखते हैं] दृश्या न्त र द्वितीय दृश्य [वृक्ष-कुंज में एक परिवार बैठा बातचीत कर रहा है] बालिका-मां, कोई कहानी सुना। बालक-नही मां, तू बहन से कह दे, वह मेरे साथ दौड़े। माता-थोड़ा-सा बुनना और है। कहानी भी सुनाऊँगी, और आज तुझे दौड़ाऊंगी भी । आज तूने कम खाया; क्या भूख नहीं थी ! बालिका-मां, आज यह दौड़ न सका, इसी से- माता-तो तूने इसे क्यों नही खेल खिलाया? ३६० :प्रसाद वाङ्मय