पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३८७

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लीला-तुम वन-लक्ष्मी हो, तभी वन-लक्ष्मी-क्या मैं भी उस चमकीली वस्तु के लिये शीतल हृदय में जलन उत्पन्न करूं? लीला --जलन तो है ही । तुम्हारे पास नहीं है, इसलिये मुझे भी उससे वञ्चित करना चाहती हो। कामना के पास है, और मैं उसे पाने का प्रयास कर रही हूँ। इसे ही तो तुमने कहा था मत्सर ! और मैं पा जाऊँगी उद्योग करके, इसलिये तुम निषेध करती हो । क्या यह मत्सर तुम्हारे शीतल हृदय की जलन नही है ? वन-लक्ष्मी-लीला ! लीला ! सावधान हो, हमारे द्वीप में लोहे का उपयोग सृष्टि की रक्षा के लिए है । उसे संहार के लिए मत बना । जो वस्तु खेती और हिंस्र पशुओ से सरल जीवो की रक्षा का माधन है, उसे नरक के हाथ, हिंसा की उंगलियाँ न बना दे । कामना को उस विदेशी युवक के साथ महार्णव मे विसर्जन कर दे। उसे दूसरे देश मे चले जाने के लिये भी कह दे, परन्तु""" लीला--वन-लक्ष्मी हो ? क्या तुम ऐसा निष्ठुर निर्देश करती हो कि मैं अपनी सखी को"..." वन लामा- हाँ ! हाँ ! उस अपनी सखो से दूर रह ! केवल तू ही उस अग्नि का ईंधन बनकर विनाश न फैला। महार्णब से मिलती हुई तरंगिणी के जल में चुटकी लेता हुआ, शीतल और सुगन्धित पवन इस देश में बहने दे। इस देश के थके कृषकों को विनोद-पूर्ण बनाने के लिए, प्रत्येक पथिक पर-कल्याण के सदृश–यहाँ के वृक्षो को फूल बरसाने दे। आग, लोहे और रक्त की वर्षा की प्रस्तावना न कर । इम विश्वम्भरा को, इस जननी को, धातु निकाल कर, खोखली और निर्बल बनाने का समारम्भ होने से रोक । मेरी प्यारी लीला मान जा ! कहे जाती हूँ, जिस दिन तूने उस चमकीली वस्तु के लिए हाथ पसारा. उसी दिन इस देश की दुर्दशा का प्रारम्भ होगा। (चली जाती है) लीला-(कुछ देर बाद) आश्चर्य ! आज तक तो वन-लक्ष्मी किसी से नहीं मिली थी। जब क्या करूं? चलकर कामना से कहूँ; या उपासनागृह में ही सबके सामने कहूं 'सोचती है) नही, अलग ही कहना ठीक होगा। तो चलू, (रुककर) यह लो कामना तो स्वयं आ रही है। [कामना का प्रवेश कामना-लीला, सखी, तू कैसी हो रही है ? लीला-मैं तो तेरे ही पास आ रही थी। बड़े आश्चर्य की बात है। कामना-आश्चर्य की कई बातें आज क। इसे द्वीप में हो रही है । पर उनसे क्या ? पहले मेरी ही बात सुन ले। मैं विलास के साथ बातें कर रही थी कि पक्षियों का संकेत हुआ। मैं उपासनागृह में गयी। मुझे नियमानुसार यह विदित कामना: ३६७