पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३९२

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दूसरा--और हम लोगों को दण्ड देगा। विवेक-परन्तु प्यारे बच्चो, वह पिता स्नेह करता है, यह हम लोग कैसे भूल जायें, और उससे डरने लगें? कामना--तुम्हे प्रमाण मिलेगा कि हम लोगों में अपराध है; उन्हीं अपराधों से हम लोग रोगी होते और उसके बाद इस द्वीप से निकाल दिये जाते है। उन अपराधों को हमे धीरे-धीरे छोडना होगा। विवेक-तो फिर सब कर्म केवल अपराध ही हो जायेंगे-- और सब--हम लोग अपराधो जानेगे और उनका त्याग करेंगे। रोग और निकाले जाने से बचेगे। विलास- --सब का कल्याण होगा। [एक दूसरे आलिंगन करते हैं। मद्यपों की-सी प्रसन्नता प्रकट करते हुए जाते है]] विवेक--परिवर्तन ! वर्षा से घले हुए आकाश की स्वच्छ चन्द्रिका, तमिस्रा से कुहू मे बदल जायगी। वालको के से शुभ्र हृदय छल की मेघमाला से ढंक जायंगे। (सोचता है) पिता । पिता । हम डरेंगे, तुमसे कॉपेगे ? क्यो ? हम अपराधी है । नहीं-नही, यह क्या अच्छी बात है । यह क्या है ? अब खेल समाप्त होने पर तुम्हारी गोद में शीतल पथ मे हम न जाने पावेगे। तुम दण्ड दोगे। नही-नही-ओह ! न्याय करोगे ? भयानक न्याय-क्योकि हम अपराध करेगे, और तुम दण्ड दोगे-ओह ! उसने कहा कि तुम निर्जीव बनकर इस द्वीप से निकाल दिये जाते हो, यही प्रमाण है कि तुम अपराधी हो। क्या हम अपराधी हे ? अपराध क्या पदार्थ है ? क्षुद्र स्वार्थों से बने हुए कुछ नियमो का भग करना अपराध होगा। यही न? परन्तु हमारे पास तो कोई नियम ऐसे नहीं थे, जो कभी तोड़े जाते रहे हों। फिर क्यों यह अपराध हम पर लादा जा रहा है ? पिता ! प्रेममय पिता ! हमारे इस खेल मे भी यह कठोरता, यह दण्ड का अभिशाप लगा दिया गया ! हमारे फूलों के द्वीप में किस निर्दय ने कांटे बिखेर दिये ? किमने हमारा प्रभात का स्वप्न भंग किया? स्वप्न-आ ! कुश्श्यों से थकी हुई ऑग्यो मे चला आ-विश्राम ! आ! मुझे शीतल अंक में ले !-उँह ! मो जाऊँ ! (सोने को चेष्टा करता है। स्वप्न में स्वर्ग और नरक का दृश्य देखता हुआ अर्ध-निद्रित अवस्था में उठ खड़ा होता है)-मै क्या-क्या कह गया। ये सब अभूतपूर्व बाते कहाँ से हमारे हृदय में उठ रही है। परन्तु, नही-यह तो प्रत्यक्ष है, दिखलायी पड़ रहा है कि ज्वाला और उसके पहले विप मे मिला हुआ धुआँ फैलने लगा है । जलाने वाली, अमृत होकर मुम्व भोग करने की इच्छा इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की कल्पना, इसे अवश्य नरक ३७२ प्रमाद वाङ्मय