पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४००

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दूसरा-और जब वह हार पहन लेती हैं, तो जैसे सन्ध्या के गुलाबी आकाश में सुनहरा चांद खिल जाता है। पहला-देखो, तुम उसकी ओर न देखना । दूसरा-क्यों, विनोद को छोड़कर तुम्हें भी जब यह अधिकार है, तब में ही क्यों वंचित रहूँ? पहला-परन्तु फिर तुम्हारी प्रेयसी को दूसरा- -बस, बस, चुप रहो। पहला-तब क्या किया जाय ? वह मुझसे कंकणों के लिये कहती थी, इतना सोना मैं कहां से इकट्ठा करूं? दूसरा-नदी की रेत से। पहला-बड़ा परिश्रम है। दूसरा-तब तक उपाय है। पहला-क्या ? दूसरा-शान्तिदेव इधर आनेवाला है। उसके पास बहुत-सा सोना है, वह ले लिया जाय । तीर और धनुष तो है न ? पहला-पही करना होगा। [विवेक का प्रवेश] विवेक-क्यों, क्या सोचते हो युवक ? पहला-तुमसे क्यों कहूँ? दूसरा-तुम पागल हो। विवेक -उन्मत्त ! व्यभिचारी !! पहला-चुप बूढ़े। विवेक--व्यभिचार ने तुम्हें स्त्री-सौन्दर्य का कलुषित चित्र दिखलाया है, और मदिरा उस पर रंग चढ़ाती है। क्यों, क्या यह सौन्दर्य पहले कहीं छिपा था जो अब तुम लोग इतने लोलुप हो गये ! पहला-जा, जा, पागल बढ़े, तू इस आनन्द को क्या समझे ? विवेक-सौन्दर्य, इस शोभन प्रकृति का सौन्दर्य विस्मृत हो चला। हृदय का पवित्र सौन्दर्य नष्ट हो गया । यह कुत्सित, यह अपदार्थ दूसरा-मूर्ख है, अन्धा है। अरे मेरी आँखों से देख, तेरी अखि खुल जायेंगी, कुत्सित हृदय सौन्दर्य पूर्ण हो जायगा-बूढ़े, परन्तु तुझे अब इन बातों से क्या काम ? जा। पहला-तुझे क्या, यदि उसकी भौंह में एक बल है, आँखों के डोरे में खिंचाव पशु !!! ३८०: प्रसाद वाङ्मय