पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०३

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विलास-ये शिकारी नहीं, सैनिक हैं, शान्ति-रक्षक हैं ! सार्वजनिक संग्रहालय पर अधिकार करो। इनमें से कुछ उसकी रक्षा करेंगे, और बचे हुये कारागार की। विनोद-कारागार क्या ? विलास-वही, जहां अपराधी रक्खे जाते हैं, जो शासन का मूल है, जो राज्य का अमोघ शस्त्र है। लीला - (विनोद से) यह तो बड़ी अच्छी बात है। कामना-विनोद, मैं तुमको सेनानी बनाती हूँ। देखो, प्रबन्ध करो। आतंक न फैलने पावे। विलास - यह लो सेनापति का चिह्न । [एक छोटा-सा स्वर्ण पट्ट पहनाता है, कामना तलवार हाथ में देती है, सब भय और आश्चर्य से देखते हैं] कामना-(शिकारियों से) देखो, आज से जो लोग इनकी आज्ञा नहीं मानेंगे, उन्हें दण्ड मिलेगा। [सब घुटने टेकते हैं] विलास --परन्तु सेनापति, स्मरण रखना, तुम इस राजमुकुट के अन्यतम सेवक हो। राजसेवा में प्राण तक दे देना तुम्हारा धर्म होगा । विनोद-(घुटने टेककर) मैं अनुगृहीत हुआ। लीला--(धीरे से) परन्तु यह तो बड़ा भयानक धर्म है । कामना-हाँ विलास जी। विलास--आज राजसभा होगी। उसी में कई पद प्रतिष्ठित किये जायेंगे। वहीं सम्मान किया जाय । कामना-अच्छी बात है । [विनोद अपने सैनिकों के साथ परिक्रमण करता है] दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [पथ में सन्तोष और विवेक] सन्तोष-यह क्या हो रहा है ? विवेक-- इस देश के बच्चे दुर्वल, चिताग्रस्त और झुके हुए दिखाई देते हैं ! स्त्रियों के नेत्रों में विह्वलता-सहित और भी कैसे-कैसे कृत्रिम भावों का समावेश हो गया है ! व्यभिचार ने लज्जा का प्रनार कर दिया है ! कामना : ३८३