पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०८

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कामना-देखो, तुम लोगों ने थोड़े-से सोने के लिये एक मनुष्य की हत्या कर डाली। यह घोर दुष्कर्म है। विलास-और इसका दण्ड भी ऐसा होना चाहिये कि देखकर लोग कांप उठे, फिर कोई ऐसा दुस्साहस न करे । विवेक-जिससे डरकर लोग तुम्हारा सोना न छुएं ! कामना-कौन है यह ? विनोद-वही पागल ! विवेक-इसने उसी वस्तु के लेने का प्रयत्न किया है, जिमकी आवश्यकता इस समय समग्र द्वीपवासियों को है । फिर--- विलास--परन्तु इमका उद्योग अनुनित था। विवेक-मैं पागल हूँ, क्या मममूंगा कि उचिरा उपाय क्या है । उपाय वही उचित होगा, जिसे आT नियम का रूप देगे। परन्तु मैं पूछता हूँ, यहाँ इतने लोग खड़े है, इनमें कौन ऐमा है, जिसे मोना न चाहिये ? [कामना विलास का मुंह देखती है] विवेक --वाह कैमा मुन्दर येत है, गेलने के लिए बुलाते हो, और उममें फंसा कर नचाते हो। स्वयं ज्वाला फैला दी है। अब पतंग गिरने लगे हैं, तो उनको भगाना चाहते हो? विलास -न्याय में हस्तक्षेप करने वाले इम वृद्ध को निकाल दो। पागलपन की भी एक सीमा होती है। [विवेक निकाला जाता है] कामना-अच्छा, इन्हे बन्दीगृह में ले जाओ। अन्तिम दण्ड इनको फिर दिया जायगा। [बन्दियों को सैनिक ले जाते हैं, विलास, और कामना बातें करते हैं] कामना- रोनापति, मभी उपस्थित पुरुषो को आज स्मरण-चिह्न लाकर दो। [विनोद सबको स्वर्णमुद्रा देता] कामना - प्यारे द्वीपवागियो, मेरी एकान्त इच्छा है कि हमारे-द्वीप-भर के लोग स्वर्ण के आभूषणो रो लद जाय। उनकी प्रमन्नता के लिये मैं प्रचुर साधन एकत्र करूंगी। परन्तु उस काम में क्या आप लोग मेरा माथ देगे? सब-यदि मोना मिले, तो हम लोग सब कुछ करने के लिए प्रस्तुत हैं विलास-सब मिलेगा, आप लोग रानी की आज्ञा मानते रहिये । एक-अवश्य मानेगे परन्तु न्याय क्या ऐमा ही होगा? विलास-यह प्रश्न न करो। - ३८८: प्रसाद वाङ्मय