पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०९

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विनोद-राजकीय आज्ञा की समालोचना करना पाप है। विलास-दण्ड तो फिर दण्ड ही है। वह मीठी मदिरा नही है, जो गले में धीरे से उतार ली जाय । सब-ठीक है । यथार्थ है। विलास-देखो, अब से तुम लोग एक गष्ट्र में परिणत हो रहे । राष्ट्र के शरीर की आत्मा राजसत्ता है। उसका सदैव आज्ञा-पालन करना, सम्मान करना। सब-हम लोग ऐसा ही करेगे ! [विनोद घुटने टेकता है, सब वैसा ही करके जाते हैं] दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [शान्तिदेव का घर] लालसा-मेरा कोई नही है, माथी, जीवन का संगी और दुःख महायक कोई नहा है । अब यह जीवन बोम हो रहा है। क्या करूँ अकेली बैठी हूँ, इतना सोना है, परन्तु इसका भोग नही, इसका सुग्न नही। ओह ! (उठती है और मदिरा का पात्र भरकर पीती है)। परन् र लीपन, जिम लिए अनन्त सुख- साधन है, रोकर विता देने के लिए नहीं है। म. रागी हे, सब सुख की चेष्टा में है, फिर मै ही क्यो कोने में बैठकर रुदन बरूं? देखो, कामना रानी है ! वह भी तो इसी द्वीप की एक लड़की है। पि कौन सी बानगी है, जो मेरे रानी होने मे बाधक है ? मै भी रानी हो सा, गतिमि को क्यो नही। (अपने आभूषणों को देखती है, वेश-भूषा संवारती , और गाती) किसे नही चुभ जाय, नैनो के नीर नुकीले ! पलको के प्याले गीले, जलको के फन्दै गीले कौन देखू बच जाय, नैनो के तीर नुकीले [विलास का प्रवेश] विलास-लालसा ! लालसा ! यह कैमा संगीत है ? यह अमृत-वर्पा ! मुझे नही विदित था कि इस मरुभूमि मे मीठे पानी का सोता छिपा हुआ यह रहा है। इधर से चला जा रहा था, अकस्मात् यह मनोहर ध्वनि सुनाई पड़ी। मै आगे न जा सका, लौट आया। लालसा-(बड़ी रुखाई से देखती हुई) आप कौन है ? हाँ, आप है ! अच्छा, आ ही गये तो बैठ जाइये। कामना:३८९