पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४१०

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विलास-सुन्दरी ! इतना निष्ठुर विभ्रम ! इतनी अन्तरात्मा को मसेलकर निचोड़ लेने वाली रुखाई ! तभी तुम्हारे सामने हार मानने की इच्छा होती है । लालसा-इच्छा होती है, हुआ करे, मैं किसी की इच्छा को रोक सकती हूँ? विलास-परन्तु पूरी कर सकती हो। लालसा- -स्वय रानी पर जिसका अधिकार है, उसकी कौन-सी इच्छा अपूर्ण होगी? विलास -अब मुझी पर मेरा अधिकार नही रहा। लालसा-देखती हूँ, बहुत-सी बाते भी आप से सीखी जा सकती है । विलास--इसका मुझे गर्व था, परन्तु आज जाता रहा। मेरी जीवन-यात्रा मे इसी बात का सुख था कि मुझ पर किसी स्त्री ने विजय नही पायी, परन्तु वह झूठा गर्व था। आज- लालसा-नो क्या मैं सचमुच सुन्दरी हूँ ! विलास-इसमे प्रमाण की आवश्यकता नहीं। लालसा-परन्तु मै इसको जाच लंगी, तब मानूंगी । दो-एक लोगो से पूछ लूं। कही मुझे झूठा प्रलोभन तो नही दिया जा रहा है। विलास--लालसा, मैं मानता हूँ (स्वगत) अब तो भाव और भाषा मे कृत्रिमता आ चली। लालसा--फिर किसी दिन मुझे अपना मूल्य लगा लेने दीजिये। विलास --अच्छा, एक वार वही गान तो सुना दो। लालसा--जब मत्री महाशय की आज्ञा है, तब तो पूरी करनी ही पड़ेगी। अच्छा एक पात्र तो ले लीजिये। [पिलाती है, गाती है-किसे नहीं चुभ जायं. इत्यादि] विलास-कोई नही, कोई नही, इस अस्त्र से कौन बच सकता है ? अच्छा तो फिर किसी दिन । [लालसा विचित्र भाव से सिर हिला देती है, विलास जाता है] [लीला का प्रवेश लालसा--आओ सखी, बहुत दिनो पर दिखाई पड़ी। लीला-नित्य आने-आने करती हूँ, परन्तु-- लालसा-परन्तु विनोद से छुट्टी नही मिलती। लीला-विनोद, वह तो एक निष्ठुर हत्यारा हो उठा है। उसको मृगया से अवकाश नही। लालसा-तब भी तुम्हारी तो चैन से कटती है। ३९०: प्रसाद वाङ्मय