पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४१२

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कामना-हाँ ! (आश्चर्य प्रकट करती है। लालसा-हाँ रानी, और उन हत्यारों को आज तक दण्ड भी नहीं मिला। लीला-रानी, उसमें तो व्यर्थ विलम्ब हो रहा है। अवश्य कोई कठोर दण्ड उन्हें मिलना चाहिये । बेचारा शान्तिदेव ! कामना-अच्छा, चलो आज मृगया का महोत्सव है, वही सब प्रबन्ध हो जायगा। [सब जाते हैं] दृश्या न्त र . सप्तम दृश्य [जंगल में एक कुटी, वृक्ष के नीचे करुणा बैठी है] संतोष--(प्रवेश करके) पतझड़ हो रहा है, पवन ने चौका देने वाली गति पकड़ ली है-इसे वसन्त का पवन कहते है---मालूम होता है कि कर्कश और शीर्ण पत्रों के बीच चलने मे उसकी असुविधा का ध्यान करके प्रकृति ने कोमल पल्लवो का सृजन करने का समारम्भ कर दिया है। विरल डालों कही-कही दो फूल और कही हरे अंकुर झूलने लगे है. -गोधूली में खेतों के बीच की पगडण्डियां निर्जन होने पर भी मनोहर हैं-दूर-दूर रहट ननने का शब्द कम और कृषकों का गान विशेष हो चला है। इसी वातावरण में हमारा देश बड़ा रमणीय था, परन्तु अब क्या हो रहा है, कौन कह सकता है। सब सुख स्वर्ण के अधीन हो गये, हृदय का सुख खो गया। पतझड़ हो रहा है। करुणा-- मानव-जीवन में कभी पतझड़ है, कभी वसन्त । वह स्वयं कभी पत्तियां झाड़कर एकान्त का सुख लेता है, कोलाहल से भागता है, और कभी-कभी फल-फूलों से लदकर नोचा-खसोटा जाता है। संतोष-- तुम कौन हो ? करुणा--इसी अभागे देश की एक बालिका, जहाँ जीवन के साधारण सुख धन के आश्रय मे पलते है, जिसका अभाव दरिद्रता है। संतोष दरिद्रता ! कैसी विकट समस्या ! देवि, दरिद्रता सब पापों की जननी है, और लोभ उसकी सबसे बड़ी सन्तान हैं। उसका नाम न लो। देखो. अन्न के पके हुए खेतों में पवन के मर्राटे से लहर उठ रही है ! दरिद्रता कैसी ? कपड़े के लिये कपास बिखरे हैं । अभाव किसका ? सुख तो मान लेने की वस्तु है । कोमल गद्दों पर चाहे न मिले, परन्तु निर्जन मूक शिलाखण्ड से उसकी शत्रुता नहीं। करुणा-हाँ, वसन्त की भी शोभा है और पतझड़ मे भी एक श्री है। परन्तु , ३९२: प्रसाद वाङ्मय