पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४१५

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हत्या का महोत्सव मना रहे हो। कल इसी प्रकार मनुष्यों की हत्या का आयोजन होगा। हत्यारे-हमने कोई अपराध नहीं किया। लीला--हत्यारों को इतना बोलने का अधिकार नही । लालसा-इन्हें इन्ही शिकारियों से मरवाना चाहिये । विलास-जिसमें सब भयभीत हों, वैसा ही दण्ड उपयुक्त होगा। कामना-ठीक है। इसी वृक्ष से इन्हें बांध दिया जाय। और सब लोग तीर मारें। [मदिरोन्मत्त सैनिक वैसा ही करते है, कामना मुंह फेर लेती है] विवेक-रानी, देखो अपना कठोर दण्ड देखो-और अपराध से अपराध- परम्परा की सृष्टि को विलास-इस पागल को तुम लोग यहाँ क्यों आने देते हो। विवेक-मेरी भी इस खुली हुई छाती पर दो-तीन तीर ! रक्त की धारा वक्षस्थल पर पहेगी, तो मैं भी समझंगा कि तपा हुआ लाल सोने का हार मुझे उपहार मे मिला है। रानी के मभ्य राज्य का जय-घोप करूंगा। लोहू के प्यासे भेड़ियो, तुम जब बर्बर थे, तब क्या इससे बुरे थे? तुम पहले इसमे भी क्या विशेष असभ्य थे ? आज शासनमभा का आयोजन करके सभ्य कहलाने वाले पशुओ, कल का तुम्हारा धुंधला अतीत इससे उज्ज्वल था ! कामना--यह बूढ़ा तो मुझे भी पागल कर देगा। विनोद-हटाओ इसको। [दो सैनिक उसे निकालते हैं] विलास--तो लालसा कब बतायेगी उम भूमि को। लालसा--मैं साथ चलूंगी। विलास-फिर उस देश पर आक्रमण की आयोजना होनी चाहिये । कामना-मब सैनिक प्रस्तुत हो जायें । सब-जब आज्ञा हो। विनोद-वन-भोज समाप्त करके। [सैनिक घूमते हैं] कामना-अच्छी बात है। कामना : ३९५