पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४१८

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अत्यन्त क्रूर-वह क्या ? दुर्वृत्त-इतने मनुष्यों के एकत्र रहने में सुव्यवस्था की आवश्यकता है । नियमों का प्रचार होना चाहिये। इसलिए इस धर्म-भवन से समय-समय पर व्यवस्थाएं निकलेंगी। वे अधिकार उत्पन्न करेगी और जब उनमे विवाद उत्पन्न होगा, तो हम लोगों का लाभ ही होगा-नियम न रहने से विशृंखला जो उत्पन्न होगी। क्रूर-प्रमदा के प्रचार से विलास के परिणाम स्वरूप रोग भी उत्पन्न होंगे। इधर अधिकारी को लेकर झगड़े भी होगे, मार-पीट होगी। तो फिर मैं औषधि और शस्त्र-चिकित्सा के द्वारा अधिक से अधिक सोना ले सकूँगा। प्रमदा-परन्तु आचार्य की अनुमति क्या है ? दुर्वृत्त-आचार्य होगे व्यवस्थापक। फिर तो अवस्था देखकर ही व्यवस्था बनानी पड़ेगी। दम्भ-संस्कृति का आन्दोलन हो रहा। उसकी कुछ लहरें ऊंची है और कुछ नीची। यह भेद अब फूलों के द्वीप मे छिपा नही रहा। मनुष्य-मात्र के बराबर होने के कोरे असत्य पर अब विश्वास उठ चला है। उसी भेद-भाव को लेकर समाज अपना नवीन सृजन कर रहा है । मैं उसका संचालन करूँगा। दुर्वृत्त-परोपकार और सहानुभूति के लिए समाज की आवश्यकता है। दम्भ -योग्यता और संस्कृति के अनुसार श्रेणी-भेद हो रहा है। जो समुन्नत विचार के लोग है, उन्हे विशिष्ट स्थान देना होगा। धर्म, सस्कृति और समाज की क्रमोन्नति के लिये अधिकारी चुने जायेगे। इससे ममाज की उन्नति मे बहुत-से केन्द्र बन जायंगे जो स्वतन्त्र रूप से इसकी सहायता करेगे। उस समय हमारी जाति समृद्धि और आनन्द-पूर्ण होगी। इस नगर मे रहकर हम लोग युद्ध और आक्रमणों से भी बचेंगे। [विवेक प्रवेश करके] विवेक -बाबा ! ये बड़े-बड़े महल तुम लोगों ने क्यो बना डाले ? क्या अनन्त काल तक जीवित रहकर दु ख भोगने की तुम लोगों की बलवती इच्छा है ? दम्भ-गन्दा वस्त्र, असभ्य व्यवहार, यह कैसा पशु के समान मनुष्य है ! इसको लज्जा नही आती? विवेक-जो अपराध करता है, उसे लज्जा होती है। मैं क्यों लज्जित होऊँ। मुझे किसी स्त्री की ओर प्यासी आँखो से नही देखना है, और न तो कपड़ों के आडम्वर मे अपनी नीचता छिपानी है। दुर्वृत्त-बर्बर । तुझे बोलने का भी ढंग नही मालूम ! जा, चला जा, नही तो मै बता दूंगा कि नागरिकों से कैसे व्यवहार किया जाता है। ३९८: प्रसाद वाङ्मय