पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४१९

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विवेक-कौटे तो बिछ चुके थे, उनसे पैर बचाकर चलने में त्राण हो जाता, परन्तु तुम लोगों ने नगर बनाकर धोखे की टट्टियों और चालों का भी प्रस्तार किया है। तुम्ही मुंह के बल गिरोगे। सम्हलो ! लौट चलो उस नैसर्गिक जीवन की ओर, क्यों कृत्रिमता के पीछे दौड़ लगा रहे हो। प्रमदा-जा बूढ़े, जा; कही से एक पात्र मदिरा मांग कर पी ले, और उसके आनन्द में कही पड़ा रह । क्यो अपना सिर खपाता है ! विवेक--ओह ! शान्ति और सेवा की मूर्ति, स्त्री के मुख से यह क्या सुन रहा हूँ-फूलों के मुंठ से वीभत्सता की ज्वाला निकलने लगी है। शिशिर-प्रभात के हिम- कण चिनगारियां बरसाने लगे है । पिता | इन्हे अपनी गोद मे ले लो ! दम्भ-चुप ! धर्म-शिक्षा देने का तुझे अधिकार नही-जा, अपनी मांद मे घुस । अस्पृश्य, नीच। विवेक-मै भागूंगा, इस नगर-रूपी अपराधो के घोसले से अवश्य भागूंगा- परन्तु तुम पर दया आती है। (जाता है) दम्भ--गया- सिर दूखने लगा । इस बकवादी को किसी ने रोका भी नही । दुर्नर इन्ही सब बातो के लिए नियम की, व्यवस्था की आवश्यकता है । प्रमदा--जाने दो। कुछ मदिरा का प्रसग चले । देखो, वे नागरिक आ रहे है। [मद्यपात्र लिये हुये नागरिक और स्त्रियाँ आती हैं, सबका पान और नृत्य] दृ श्या न्त र द्वितीय दृश्य [स्कन्धावार के पटमण्डप में कामना रानी] कामना-प्रकृति शान्त है, हृदय चचल है । आज चाँदनी ना समुद्र बिछा हुआ है। मन मछली के समान तैर रहा है, उसकी प्यास नही बुझनी । अनन्त नक्षत्र-लोक से मधुर वंशी की झनकार निकल रही है; परन्तु कोई गाने वाला नही है। किमी का स्वर नही मिलता। दासी ! प्याम- [सन्तोष का प्रवेश कामना-कोन ? सन्तोष ! सन्तोष-हां रानी! कामना-बहुत दिनों पर दिखायी पड़े। सन्तोष--हाँ रानी! कामना--किधर भूल पड़े ? अब क्या डर नही लगता? कामना : ३९९