पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२०

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सन्तोष-लगता है रानी ! कामना-(कुछ संकोच से) फिर भी किस साहस से यहाँ आये। सन्तोष-(मुस्कराकर)-देखने के लिये कि मेरी आवश्यकता जब भी है कि नहीं। कामना--परिहास न करो सन्तोष ! सन्तोष-परिहास ! कभी नही । जब हृदय ने पराभव स्वीकार करके विजय- माला तुम्हे पहना दी और तुम्हारे कपोलों पर उत्माह की लहर खेल रही थी, उसी ममय तुमने ठोकर लगाकर मेरी मुन्दर कल्पना को स्वप्न कर दिया। रमणी का रूप--कलना का प्रत्यक्ष-सम्भावना की साकारता और दूसरे अतीन्द्रिय रूप-लोक, जिसके मामन मानवीय महत् अहम्भार लोटने लगता है, जिस पिच्छिल भूमि पर स्खतन विवे बन कर खा होता है, जहाँ प्राण अपनी अतृप्त अभिलाषा का आनन्द- निकेतन देखकर पूर्ण वेग से धमनियों में दौड़ने लगता है, जहाँ चिन्ता विस्मृत होकर विश्राम करने लगती है, नी रमणी का-तुम्हारा-रूप देखा था-और यह नही कह माता कि मैं झा नहीं गया। परन्तु, मैने देखा कि उस रूप मे पूर्ण-चन्द्र के वैभन की नन्द्रिका-सी सबको नहला देने वाली उच्छृखल वासना, वह अपार यौवन- राशि ममुद्र के जल-स्तूप के समान समुन्नत--उसम गर्व से ऊंची रहस्य-पूर्ण कुतूहल की प्रेरणा थी। मैने विचारा कि यह प्यास बुझाने का मधुर-स्रोत नही है, जो मलिना की मीठी छांह मे बहता है। कामना--क्या यह सम्भव नही कि तुमने भूल की हो, उसे उजेले मे न देखा हो ! अँधेरे में अपनी वरतु न पहचान गके हो ! सन्तोष-वह तमिस्रा न थी, और न तो अन्धकार था, प्रेम की गोधूली थी, सन्ध्या थी। जन वृक्षों की पत्तियां मोने लगती है, जब प्रकृति विश्राम करने का संवेत करती है, पवन रुक कर सन्ध्या-सुन्दरी के सीमन्त मे सूर्य का सिन्दूर रेखा लगाना देखने लगता है, पक्षियों का घर लौटने का मगल गान होने लगता है, सृष्टि के उम रहस्यपूर्ण ममय में जब न तो तीव्र, चौका देने वाला आलोक था-न तो नेत्रो को बैंक तेने वा ना नम था, तुम्ह देखने को-पहचानाने की-चेष्टा की, और तुम्हे कुहक के रूप में देखा। कामना-और देखते हुए भी आँखे बन्द थी। सन्तोष -मेरे पास कौन सम्बल था कामना-रानी ! कामना--ओह ! मेरा भ्रम था ! सन्तोष |--क्या तुम्हें दु.ख है कामना ! कामना--मेरे दुःखों को पूछकर और दुखी न बनाओ। सन्तोप--नही कामना, क्षमा करो। तुम्हारे कपोलों के जार और भौंहों के - ४००:प्रमाद वाङ्मय