पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नीचे एक श्याम मण्डल है, नीरव रोदन हृदय मे और गम्भीरता ललाट में खेल रही है । और भी एक लज्जा नाम की नयी वस्तु पलको के परदे मे छिपी है, जो कुछ ऐसी मर्म की बातें जानती हैं, जिन्हे हम लोग पहले नही जानते थे। कामना--जाने दो सन्तोष । तुम्हे जब इसे क्या ! तुम तो सुखी हो । सन्तोष--सुखी। हाँ मैं सुखी हूँ मेरी एक ही अवस्था है। दुखों की बात उनसे पूछो, तुम्हारी राज्य-कल्पना से जिनकी मानसिक शुभेच्छा एक बार ही नष्ट हो गयी है । जिन पर कल्याण की मधु-वर्षा नही होती, उन अपनी प्रजाओं से पूछो, और पूछो अपने मन से। कामना--जाओ सन्तोष, मुझे और दुखी न बनाओ। [सिर झुका लेती हैं] सन्तोष-अच्छा रानी, मैं जाता हूँ (जाता है) कामना-(कुछ देर बाद सिर उठाकर) क्या चला गया- [दासी पात्र लिये आती है, और सखियाँ आती हैं] पहला रानी, मन कैसा है ? दूसरी-मैं बलिहारी यह उदासी क्यो है ? कामना-यह पूछकर तुम क्या करोगी? पहली -फिर किससे कहोगी? दूसरी-पगली ! देखती नही ! स्त्री होकर भी नही जानती, नही समझती। पहली-रानी, देश मे अन्य बहुत-से युवक है । कामना-तो फिर? दूसरी-ब्याह कर लो रानी ! कामना-चुप मूर्ख ! मै पवित्र कुमारी हूँ। मैं साने से लदी हुई, परिचारिकाओ से घिरी हुई, अपने अभिमान-साधना की कठिन तपस्या करूंगी। अपने हाथो से जो विडम्बना मोल ली है उसका प्रतिफल कौन भोगेगा ? उसका आनन्द, उसका ऐश्वर्य और उसकी प्रशसा, क्या इतना जीवन के लिए पर्याप्त नही है ? पहली-परन्तु - दूसरी-जीवन का सुख, स्त्री होने का उच्चतम अधिकार कहाँ मिला ? रानी, तुम किसी पुरुष को अपना नही बना सकी। कामना-देखती हूँ, तू बहुत बढी चली जा रही है । क्या तुझे - पहलो -क्षमा हो, अपराध क्षमा हो । दूसरी-रानी, मुझे चाहे तीरों से छिदवा दो; परन्तु मैं एक बात बिना कहे न कामना:४०१