पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२५

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स्त्री-दोहाई रानी की ! तुम्हारे गज्य के बदले मुझे ऐसा पुरुष नहीं चाहिए। मुझे बचाओ, यह नरपिशाच ! ओह--(मुंह ढाँकती है) विलास |-अच्छा जाता हूँ। (सरोष प्रस्थान) दृश्या न्त र तृतीय दृश्य - [पथ में लालसा]] लालसा-दारुण ज्वाला, अतृप्ति का भयानक अभिशाप | मेरे जीवन का संगी कौन है ? मै लालसा हूं, जन्म भर जिसे सन्तोष नही हुआ ! नगर से आ रही हूँ। प्रमदा के स्वतन्त्रता-भवन के आनन्द-विहार से भी जी नही भरा, कोई किसी को रोक नही सकता और न तो विहार की धारा मे लौटने की बाधा है। उच्छृखल उन्मत्त विलास-मदिरा की विस्मृति । विहार की श्रान्ति फिर भी लालसा (देखकर) अरे मै घूमती-घ्मती किधर निकल आयो ? कही बहुत दूर । यदि कोई शत्रु आ गया तो (ठहर कर सोचती है) क्या चिन्ता ? [एक शत्रु सैनिक का प्रवेश] सैनिक--तुम कौन हो? लालसा-मैं, मै? सैनिक-हां, तुम। लालसा-सेनापति विलास की स्त्री। सैनिक-जानती हो, कल तुम्हारे सेनापति ने मेरी स्त्री को पकड लिया है ? आज तुमको यदि मैं पकड ले जाऊँ ? लालसा--(मुसकरा कर) कहाँ ले जाओगे ? सैनिक-यह क्या? लालसा-कहाँ चलू, पूछती तो हूँ। तुम्हारे सदृश पुरुष के साथ चलने मे किस सुन्दरी को शंका होगी? सैनिक -इतना अधःपतन | हम लोगो ने तो ममझा था कि तुम्हारे देश के लोग केवल स्वर्ण-लोलुप शृगाल ही है, परन्तु नही, तुम लोग तो पशुओ से भी गए- बीते हो जाओ। लालसा तो क्या तुम चले जाओगे? मेरं ओर देखो। सैनिक-छिः ! देखने के लिये बहुत-सी उत्तम वस्तुएँ है । सरल शिशुओं की निर्मल हँसी, शरद का प्रसन्न आकाश-मण्डल, वसन्त का विकसित कानन, वर्षा की कामना : ४०५