पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४२९

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आंधी की बहिया वह जाती चिढ़ कर चल जाती चपला। मैं यों ही हूँ, ये कोई भी मेरी हंसी न सकते छीन ॥ तितली अपना गिरा और भूला-सा पंख समझती है। मुझे छोड़ देती, मेरा मकरन्द मुझी में रहता लीन । मधु सौरभ वाले फल-फूलों को लुट जाने का डर हो। मैं झूला झूलती रही हूँ-बनी हुई अम्लान नवीन ॥ व्यथित विश्व का राग-रक्त क्षत हूँ मुझको पहचानो तो। सुधा-भरी चांदनी सुनाती मुझको अपनी जीवन-बीन । दृश्या न्त र पञ्चम दृश्य [फूलों के द्वीप में एक नागरिक का घर पिता-वेटा, इतनी देर हुई, अभी तक सोते रहोगे, क्या आज खेतों मे नही जायगा? लड़का-(आँख मलता हुआ) पहले एक प्याली मदिरा, फिर दूसरी बात, (अंगड़ाई लेकर) ओह बड़ी पीडा है। पिता-लडके ! तुझे लज्जा नही आती ! मुझसे मदिरा मांगता है ? लड़का-तो मां से कह दो, दे जाय । [माता का प्रवेश माता --क्यों, आज भी सबेरा हो गया, अभी सुनार के यहाँ नही गये, हल पकड़े खड़े हो? इससे तो अच्छा होता कि बैलो के बदले तुम्ही इसमे जुतते । आज के उत्सव मे चार स्त्रियों के सामने क्या पहनकर जाऊंगी। पिता-तो अच्छी बात है, मोने का गहना बैठकर खाना और चबाना मेरी सूखी हड्डियां ! लड़के को चोपट कर डाला। वह मुझसे मदिरा मांगता है, और तुम मांगती हो आभूषण । लड़का-(लेटा हुआ) तुम दोनो कैसे मूर्ख बकवादी हो। एक प्याली देने में इतनी देर ! इतना झंझट ! माता-तुझ-सा निखटू पति मेरे ही भाग्य में बदा था ! मैं यदि- पिता - हां, हाँ कहो 'यदि' क्या? यही न कि दूसरे की स्त्री होती, तो गहनों से लद जाती; परन्तु उसके साथ पापों से भी लड़का-देखो, मुझे एक प्याला दे दो, और एक-एक तुम लोग -बस झगड़ा मिट जायगा। जो बैल होंगे, आप ही कुछ देर में खेत पर पहुंच जायेंगे। कामना:४०९