पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३१

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करुणा-किससे पूछू–भाई सन्तोष, थोड़ी देर यहीं बैठो, मैं क्रूर का घर पूर्छ आती हूँ। बड़ी पीड़ा होगी । आह ! (सहलाती है) सन्तोष-करुणे ! मैं तुम्हारे अनुरोध से यहां चला आया हूँ। मुझे तो इस वैद्य के नाम से भी निर्वेद होता है। करुणा-मेरे लिये भाई-मेरे लिये ! बैठो मैं आती हूँ-(जाती है) [एक नागरिक का प्रवेश] नागरिक-(सन्तोष को देखकर) तुम कौन हो जी ? सन्तोष-मनुष्य-और दुखी मनुष्य । नागरिक -तब यहाँ क्या है जो किसी के घर पर बिना पूछे बैठ गये ? सन्तोष-यह भी अपराध है ? मैं पीड़ित हूँ, इसी से थोड़ा विश्राम करने के लिए बैठ गया हूँ। नागरिक-अभी नगर-रक्षक तुम्हें पकड़कर ले जायगा। क्योंकि तुमने मेरे अधिकार में हस्तक्षेप किया है। विना मेरी आज्ञा लिये यहाँ बैठ गये । क्या यह कोई धर्मशाला है? सन्तोष-मैं तो प्रत्येक गृहस्थ के घर को धर्मशाला के रूप में देखना चाहता हूँ, क्योंकि इसे पापशाला कहने में मंकोच होता है । नागरिक-देखो इस दुष्ट को। अपराध भी करता है और गालियां भी देता है। उठ जा यहाँ से, नहीं तो धक्के खायगा ! सन्तोष--हे पिता ! तुम्हारी सन्तान इतनी बँट गयी है। नागरिक-क्या हिस्सा भी लेगा? उठ-उठ-चल- सन्तोष--भाई, मैं बिना किसी के अवलम्ब के चल नहीं सकता। मेरी बहन आती है मैं चला जाऊंगा। नागरिक --क्या तेरी बहन ! सन्तोष-हाँ- नागरिक--(स्वगत) आने दो, देखा जायगा । [दौड़ती हुई करुणा का प्रवेश, पीछे मद्यप दुर्वृत्त] दुर्वृत्त-ठहरो सुन्दरी ! मुझे विश्वास है कि तुमको न्यायालय की शरण लेनी पड़ेगी-मैं व्यवस्था बतलाऊँगा, तुम्हारी सहायता करूंगा, तुम सुनो तो! हाँ-क्या अभियोग है ? किसी ने तुम्हें-ऐं ! करुणा --(भयभीत) भाई सन्तोष ! से यह मद्यप ! दुर्वृत्त-चलो, तुम्हें भी पिलाऊँगा। विना इसके न्याय की बारीकियां नहीं सूझती-हाँ, तो फिर एक चुम्बन भी लिया--यही न ! कामना:४११