पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३२

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दुर्वृत्त- करुणा-नीच, दुराचारी ! सन्तोष-क्यों नागरिक ! यही तुम्हारा सभ्य व्यवहार है ? दुर्वृत्त-अनधिकार चेष्टा-मूर्ख ! तू भी न्यायालय से दण्ड पावेगा-तुम साक्षी रहना नागरिक ! नागरिक-(करुणा की ओर देखता हुआ) सुन्दर है ! हा-हाँ, यह तो अनधिकार चेष्टा प्रारम्भ से ही कर रहा है। बिना मुझसे पूछे यहाँ बैठ गया और बात भी छीनता है। सन्तोष-मैं चिकित्सा के लिए यहाँ आया हूँ। क्यों मुझे तुम लोग तंग कर रहे हो-चलो करुणा, हम लोग चलें। --वाह ! चलो चलें ! ए-तुम्हें परिचय देना होगा, तुम असभ्य बर्बर यहाँ किसी बुरी इच्छा से आये होंगे । नागरिक ! बुलाओ शान्तिरक्षक को। सन्तोष -(हँसकर) शान्ति तुम्हारे घर कही है भी जो तुम उसकी रक्षा करोगे? बाबा, हम लोग जाते है जाने दो। दुर्वृत्त-परिचय देना होगा तब- करुणा-परिचय देने में कोई आपत्ति नही है । मैं मृत शान्तिदेव की बहन हूँ। [दुर्वृत्त आँख फाड़ कर देखता है] नागरिक-तब यह तुम्हारा भाई कैसे ? इसमें कुछ रहस्य है । दुर्वृत्त-तुम क्या जानो, चुप रहो (करुणा से) हां, तुम्हारा तो बड़ा भारी अभियोग है, न्यायालय अवश्य तुम्हें सहायता देगा। क्यों, तुमने शान्तिदेव का धन कुछ पाया ? अकेली लालसा उसे नही भोग सकती। तुम्हारा भी उसमें कुछ अंश है। नागरिक-हाँ यह तो ठीक कहा-- करुणा-मुझे कुछ न चाहिये । मुझे जाने की आज्ञा दीजिये । दुर्वृत्त-नही, मैं अपने कर्तव्य से च्युत नही हो सकता। तुम्हारा उचित प्राप्य, न्यायालय की सहायता से दिलाना मेरा कर्तव्य है । तुम व्यवहार लिखाओ। सन्तोष-हम लोगों को कुछ न चाहिये । [फर का प्रवेश दुर्वृत्त-आओ नागरिक क्रूर ! यह तुमसे चिकित्सा कराने बड़ी दूर से आया है। क्रूर-(सन्तोष को देखता हुआ) यह ! अरे इसकी तो टाग सड़ गयी है, भयानक रोग है, इसको काटकर अलग कर देना होगा। सन्तोष-हे देव ! यह क्या लीला है ! यह सब पिशाच हैं कि मनुष्य ! मुझे चिकित्सा न चाहिये, मुझे जाने दो। ४१२: प्रसाद वाङ्मय