पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३७

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कामना-लालसा, चुप रहा। तुम न मंत्री हो, और न सेनापति । लालसा-हाँ, मैं कुछ नही हूँ-तो फिर- विलास-उन्हें उपयुक्त दण्ड दिया गया। कामना-यदि राजकीय शासन का अर्थ हत्या और अत्याचार है, तो मैं व्यर्थ रानी बनना नहीं चाहती। मेरी प्रजा इस बर्बरता से जितना शीध्र छुट्टी पावे, उतना ही अच्छा । (मुकुट उतारती हुई) यह लो, इस पाप-चिह्न का बोझ अब मैं नही वहन कर सकती। यथेष्ट हुआ। प्यारे देशवासियो, लौट चलो, इस इन्द्रजाल की भयानकता से भागो । मदिरा से सिंचे हुये चमकीले स्वर्ण-वृक्ष की छाया से भागो । [सिंहासन से हटती है] [विवेक का उन्मत्त भाव से प्रवेश, कामना बालक को गोद में लेती है] विवेक-बहुत दिन हुए, जब मैंने कहा था कि 'भागो-भागो' । तब तुम्हीं सब लोगों ने कहा था कि 'पागल है'; और मैं पागल बन गया। (देखकर) कामना, आहा मेरी पगली लड़की ! आ मेरी गोद में आ-चल, हम लोग वृक्षों की शीतल छाया मे लौट चलें। [कामना दौड़कर विवेक से लिपट जाती है] विनोद-मदिरा और स्वर्ण के द्वारा हम लोगों में नवीन अपराधों की सृष्टि हुई, और हुई एक महान माया-स्तूप की रचना। हमारे अपराधों ने राजतन्त्र की अवतारणा की। पिता की सदिच्छा, माता का स्नेह, शील का अनुरोध हम लोगों ने नही माना। तब अवश्य दण्ड के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। कामना, हम सब तुम्हारे साथ है। विलास-सज्जनो ! सैनिको! देश दरिद्र है, भूखा है। क्या तुम लोग इन देशद्रोहियों के पीछे चलोगे ? यह भी क्या खेल है ? विवेक-खेल था, और खेल ही रहेगा। रोकर खेलो चाहे हँसकर । इस विराट् विश्व और विश्वात्मा की अभिन्नता, पिता और पुत्र, ईश्वर और सृष्टि, सत्र को एक मे मिलाकर खेलने की सुखद क्रीड़ा भूल जाती है; होने लगता है विषमता का विषमय द्वन्द्व । तब सिवा हाहाकार और रुदन के क्या फैलेगा ? हँसने का काम भूल गये । पशुता का आतंक हो गया। मनुष्यता की रक्षा के लिये, पाशवी वृत्तियों का दमन करने के लिए राज्य की अवतारणा हो गयी; परन्तु उसकी आड़ में दुर्दमनीय नवीन अपराधों की सृष्टि हुई। इसका उद्देश्य तब सफल होगा, जब वह अपना दायित्व कम करेगी-जनता को, गक्ति को, आत्मसंयम और आत्मशासन सिखाकर विश्राम लेगी। जब अपराधों की मात्रा घटेगी और क्रमशः समूल नष्ट होगी, तब संघर्षमय शासन स्वयं तिरोहित होगा। आत्मप्रतारको ! उस दिन की कामना : ४१०