पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रतीक्षा में कठोर तपस्या करनी होगी, जिस दिन बिर और मनुष्य, राजा और प्रजा, शासितों और शासकों का भेद विलीन होकर विराट्-विश्व जाति और देश के वर्षों से स्वच्छ होकर एक मधुर मिलन-क्रीड़ा का अभिनय करेगा। विनोद-आओ, हम सब उस मधुर-मिलन के योग्य हों। उस अभिनय का मंगल पाठ पढ़े। [अपना स्वर्णपट्ट और आभूषण उतार कर फेंकता है, लीला भी उसका अनुकरण करती है] लीला-जितने भूले-भटके होगे, वे इन्हीं पागलों के पीछे चलेगे। हम अपने फूलों के द्वीप से कांटों को चुनकर निकाल बाहर करेगे। [बहुत-से लोग अपने स्वर्ण-आभूषण और मदिरा के पात्र तोड़ते हैं, विलास और लालसा आश्चर्य के भाव से देखते हैं] विलास-सैनिको, तुम्हारी क्या इच्छा है ? तुम वीर हो। क्या तुम इन्हीं का-सा दीन और निरीह जीवन बिताओगे ? क्या फिर उसी दुःखपूर्ण देश में जाओगे जहाँ न तो सोने के पानपात्र हैं, और न माणिक के रंग की मदिरा ? कुछ लोग-हम लोग यहीं नगर बसाकर रहेंगे। एक-और तुम हमारे राजा बनो। [वह गिरा हुआ मुकुट उसे पहनाता है, लालसा भी रानी का स्थान ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ती है, 'उहरो-ठहरों' कहते हुए दोनों ओर से सैनिकों के साथ सन्तोष का प्रवेश] विवेक-सन्तोष ! तुमने बहुत विलम्ब किया। आगन्तुक सै०-क्या ! यह हत्या ? तुम हत्या करके भी यह साहस करते हो कि हम लोग तुम्हें अपना सर्वस्व मानें। यह ठीक है कि हम लोगों को विधि-निषेधात्मक एक सर्वमान्य सत्ता की अब आवश्यकता हो गयी है; परन्तु तुम कदापि इसके योग्य नही हो । सोने से लदी हुई लालसा रानी ! और मदिरा से उन्मत्त विलास राजा !! आश्चर्य !!! [विलास के साथी सैनिक भी स्वर्ण और अस्त्र रख देते हैं। विलास लालसा-अनन्त समुद्र में, काल के काले परदे में, कही तो स्थान मिलेगा- चलो विलास! [दोनों जाते हैं] कामना-मेरे सन्तोष । प्रिय सन्तोष !! -तब लालसा! ४१८:प्रसाद वाङ्मय