पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३९

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सन्तोष-मेरी मधुर कामना -(कामना का हाथ पकड़ लेता है) [परिवर्तित वृश्य, समुद्र में नौका पर विलास और लालसा, सब नागरिक उस पर स्वर्ण फेंकते हैं, नाव उगमगाती है, लालसा का क्रन्दन-'सोने से नाव डूबी, अब नहीं बस', तुमुल तरंग, परिवत्तित दृश्य में अन्धकार, दूसरी ओर आलोक, फूलों की वर्षा]] [समवेत स्वर से गान] खेल लो नाथ, विश्व का खेल ! राजा बन कर अलग न बैठो, बनो नही अनमेल ! वही भाव फिर लेगी जनता, भूल जायगी सारी समता। कहाँ रही प्यारी मानवता, बढी फूट की बेल ॥ रुदन, दुःख, तम-निशा, निराशा इन द्वंद्वो का मिटे तमाशा । स्मित आनन्द उषा औ' आशा, एक रहें कर मेल । हम सब हैं हो चुके तुम्हारे, तुम भी अपने होकर प्यारे । आओ, बैठो हमारे, मिलकर खेलें खेल ॥ खेल लो नाथ, विश्व का खेल ! साथ [यवनिका कामना : ४१९