पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४४२

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अभिमानी मनुष्य के इतिहास की स्रोत-भूमि-चेतना का इतिवृत्त उपेक्षणीय नहीं होगा। यह चेतना अनादिकाल से स्वाप और जागरण के अंकों में विलसित रह समस्त मानव-भाव सत्य की अधिष्ठान भूमि बनी है। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य की समकालीन रचना कामायनी कहती है- चेतना का सुन्दर इतिहास निखिल मानव भावों का सत्य विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य उसी हृदयपटल की भूमि के उत्खनन में जो प्रत्नोपलब्धियां कवि को हुई-- उनके भावांकनों से प्रसादवाङ्मय समृद्ध है। कामायनी के आमुख में भी इतिहास के इस अनदेखे पक्ष के प्रति इस प्रकार का संकेत मिलता है- "प्रायः लोग गाथा और इतिहास में मिथ्या और सत्य का व्यवधान मानते हैं । किन्तु सत्य मिथ्या से अधिक विचित्र होता है। आदिम युग के मनुष्यों के प्रत्येक दल ने ज्ञानोन्मेष के अरुणोदय में जो भावपूर्ण इतिवृत्त संग्रहीत किये थे उन्हें आज गाथा या पौराणिक उपाख्यान कह कर अलग कर दिया जाता है क्योंकि उन चरित्रों के साथ भावनाओं का भी बीच-बीच मे संबंध लगा हुआ-सा दीखता है। घटनाएं कही- कही अतिरंजित-सी भी जान पड़ती है। तथ्य संग्रहकारणी तर्क-बुद्धि को ऐसी घटनाओं में रूपक का आरोप कर लेने की सुविधा हो जाती है। किन्तु उनमे भी कुछ सत्यांश घटना से संबद्ध है, ऐसा तो मानना ही पड़ेगा। आज के मनुष्य के समीप तो उसकी वर्तमान संस्कृति का क्रमपूर्ण इतिहास ही होता है परन्तु उसके इतिहास की सीमा जहां से प्रारम्भ होती है ठीक उसी के पहले सामूहिक चेतना की दृढ़ और गहरे रंगों की रेखाओं से बीती हुई और भी पहले की बातों का उल्लेख स्मृति-पट पर अमिट रहता है, परन्तु कुछ अतिरंजित-सा। वे घटनाएं आज विचित्रता से पूर्ण जान पड़ती है । सम्भवतः इसीलिए हमको अपनी प्राचीन श्रुतियों का निरुक्त के द्वारा अर्थ करना पड़ा जिससे कि उन अर्थों का अपनी वर्तमान रुचि से सामञ्जस्य किया जाय।" क्या है वह स्मृति और उस स्मृति का हेतु-जिसके पट पर और भी पहले की बीती हुई बातों का उल्लेख अमिट रहता है ? अतीत से चले आ रहे वे संस्कार ही स्मृति-हेतु हैं जिनकी आपुजित मूति वासना है, और जहाँ से कल्पनाएं उदित हुआ करती हैं। पातंजल योग में साधन पाद के तेरहवें सूत्र पर व्यास भाष्य है-'ये संस्काराः स्मृतिहेतवस्तावासनास्ताश्च अनादिकालीना'। उसमें मूर्छा या अवसान और प्रबोध तो है, रूपान्तरण भी है, किन्तु उसका सर्वथा विलोप, कथमपि नही। पुनः पुनः आलोकित होने के लिए सौदामिनी-सी वह वासना धनान्तरित हुआ करती है: कर्म और संस्कार की सन्धि में उसका जागरण होता है । मन्वन्तर के आरम्भ में ४२२: प्रसाद वाङ्मय