पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४४७

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प्रथम अङ्क प्रथम दृश्य . ! [उज्जयिनी में गुप्त साम्राज्य का स्कन्धावार] स्कन्दगुप्त-(टहलते हुए) अधिकार-सुख कितना मादक और सारहीन है ! अपने को नियामक और कर्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है ! उत्सवों में परिचारक और अस्त्रों में ढाल से भी अधिकार-लोलुप मनुष्य क्या अच्छे हैं ? (ठहरकर) उँह ! जो कुछ हो, हम तो साम्राज्य के एक सैनिक हैं । पर्णत-(प्रवेश करके) युवराज की जय हो । स्कन्दगुप्त-आर्य पर्णदत्त का अभिवादन करता हूँ। सेनापति की क्या आज्ञा है ? पर्णदत्त-मेरी आज्ञा ! युवराज ! आप सम्राट् के प्रतिनिधि हैं, मैं तो आज्ञाकारी सेवक हूँ। इस वृद्ध ने गरुडध्वज लेकर आर्य चन्द्रगुप्त की सेना का सञ्चालन किया है। अब भी गुप्त-साम्राज्य की नासीर-सेना में-उसी गरुडध्वज की छाया में पवित्र क्षात्रधर्म का पालन करते हुए उसी के मान के लिए मर-मिट्ट, यही कामना है। गुप्तकुलभूषण ! आशीर्वाद दीजिये, वृद्ध पर्णदत्त की माता का स्तन्य लज्जित न हो। स्कन्दगुप्त-आर्य ! आपकी वीरता की लेखमाला शिप्रा और सिन्धु की लोल लहरियों से लिखी जाती है, शत्र भी उस वीरता की सराहना करते हुए सुने जाते है। तब भी सन्देह ! पर्णदत्त-सन्देह दो बातों से है युवराज ! स्कन्दगुप्त-वे कौन-सी हैं ? पर्णदत्त-अपने अधिकारों के प्रति आपकी उदासीनता और अयोध्या में नित्य नये परिवर्तन । स्कन्दगुप्त -क्या अयोध्या का कोई नया समाचार है ? पर्णदत्त -सम्भवतः मम्राट् तो कुसुमपुर चले गये हैं, और कुमारामात्य महाबलाधिकृत वीरसेन ने स्वर्ग की ओर प्ररपान किया। स्कन्दगुप्त-क्या ! महाबलाधिकृत अब नहीं हैं ? शोक ! पर्णदत्त-अनेक समरों के विजेता, महामानी, गुप्त-साम्राज्य के महाबलाधिकृत अब इस लोक में नहीं हैं ! इधर प्रौढ़ सम्राट के विलास की मात्रा बढ़ गई है। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४२७