पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[स्कन्दगुप्त पर्णदत्त की ओर देखते हैं] पर्णदत्त-वलभी का क्या समाचार है ? दूत-वलभी का पतन अभी रुका है। किन्तु बर्बर हूणों से उसका बचना कठिन है । मालव की रक्षा के लिए महाराज बन्धुवर्मा ने सहायता मांगी है। दशपुर की समस्त सेना सीमा पर जा चुकी है। स्कन्दगुप्त-मालव और शक-युद्ध में जो सन्धि गुप्त-साम्राज्य और मालवराष्ट्र में हुई है, उसके अनुसार मालव की रक्षा गुप्त-सेना का कर्तव्य है। महाराज विश्ववर्मा के समय से ही समाद कुमारगुप्त उनके संरक्षक है। परन्तु दूत ! बड़ी कठिन समस्या है। दूत-विषम व्यवस्था होने पर भी युवराज-साम्राज्य ने संरक्षकता का भार लिया है। पर्णदत्त -दूत ! क्या तुम्हें विदित नहीं है कि पुष्यमित्रों से हमारा युद्ध चल दूत-तब भी मालव ने कुछ समझकर, किसी आशा पर ही, अपनी स्वतन्त्रता को सीमित कर लिया था। स्कन्दगुप्त-दूत ! केवल सन्धि-नियम ही से हम लोग बाध्य नही हैं, किन्तु शरणागत-रक्षा भी क्षत्रिय का धर्म है। तुम विश्राम करो। सेनापति पर्णदत्त समस्त सेना लेकर पुष्यमित्रों की गति रोकेगे। अकेला स्कन्दगुप्त मालव की रक्षा करने के लिए सन्नद्ध है । जाओ, निर्भय निद्रा का सुख लो। स्कन्दगुप्त के जीते-जी मालव का कुछ न बिगड़ सकेगा। दूत-धन्य युवराज ! आर्य-सम्राज्य के भावी शासक के उपयुक्त ही यह बात हैं। (प्रणाम करके जाता है) पर्णदत्त-युवराज ! आज यह वृद्ध, हृदय से प्रसन्न हुआ और गुप्त-साम्राज्य की लक्ष्मी भी प्रसन्न होंगी। चक्रपालित-तात ! पुष्यमित्र-युद्ध का अन्त तो समीप है । विजय निश्चित है। किसी दूसरे सैनिक को भेजिये । मुझे युवराज के साथ जाने की अनुमति हो। स्कन्दगुप्त-नही चक्र, तुम विजयी होकर मुझसे मालव में मिलो। ध्यान रखना होगा कि राजधानी से अभी कोई सहायता नहीं मिलती। हम लोगों को इस आसन्न विपद् में अपना ही भरोसा है । पर्णदत्त-कुछ चिन्ता नही युवराज ! भगवान् सब मंगल करेंगे। चलिये, विश्राम करें। श्या न्तर ४३०: प्रसाद वाङ्मय