पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५२

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जाय, कुमारगुप्त--(हंसते हुए) हाँ, तो आर्य समुद्रगुप्त को विवश होकर उन विद्रोही विदेशियों का दमन करना पड़ा; क्योंजि मौर्य-साम्राज्य के समय से ही सिन्धु के उस पार का देश भी भारत-साम्राज्य के अन्तर्गत था । जगद्विजेता सिकन्दर के सेनापति सिल्यूकस से उस प्रान्त को मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने लिया था। धातुसेन-फिर तो लडकर लेने की एक परम्परा-सी लग जाती है। उनमे उन्होंने, उन्होंने उनसे, ऐसे ही लेते चले आये है । उसी प्रकार आर्य' कुमारगुप्त-उँह ! तुम समझने नही । मनु ने इसकी व्यवस्था दी है। धातुसेन-नही धर्मावतार | समझ मे तो इतनी बात आ गयी कि लड़कर ले लेना ही एक प्रधान स्वत्व है । संसार मे इसी का बोलबाला है। भटार्क-नही तो क्या से, भीख माँगने से कुछ अधिकार मिलता है ? जिसके हाथों मे बल नही, उमका अधिकार ही कैसा ? और यदि मांगकर मिल भी तो शान्ति की रक्षा कौन करेगा? मुद्गल-(प्रवेश करके) रक्षा पेट कर लेगा, कोई दे भी तो। अक्षय तूणीर, अक्षय कवच सब लोगो ने सुना होगा; परन्तु इस अक्षय मञ्जूषा का हाल मेरे सिवा कोई नही जानता ! इसके भीतर कुछ रखकर देखो, मै कमी शान्ति से बैठा रहता हूँ ! (पद्मासन से बैठ जाता है) पृथ्वीसेन-परम भट्टारक की जय हो | मुझे कुछ निवेदन करना है यदि आज्ञा हो तो। कुमारगुप्त-हाँ, हाँ कहिये। पृथ्वीसेन-शिप्रा के इस पार साम्राज्य का स्व न्धावार स्थापित है । मालवेश का दूत भी बता गया है कि 'हम ससैन्य युवराज के सहायतार्थ प्रस्तुत है।' महानायक पर्णदत्त ने भी अनुकूल ममाचार भेजा है। कुमारगुप्त -मालव का इस अभियान मे कैमा भाव है, कुछ पता चला ? क्योंकि यह युद्ध तो जान-बूझकर छेडा गया है। पृथ्वीसेन-अपने मुख से मालवेश ने दूत से यहाँ तक कहा था कि युवराज को कष्ट देने की वथा आवश्यकता थी, आज्ञा पाने ही से मै स्वयं इसे ठीक कर लेता। कुमारगुप्त-महा•मन्धिविग्रहिक - साधु ! यह वश-परम्परागत तुम्हारी ही विद्या है। पृथ्वीसेन-मम्राट् के श्रीचरणों का प्रताप है। सौराष्ट्र से भी नवीन समाचार मिलने वाला है । इसलिए युवराज को वहाँ भेजने का मेरा अनुरोध था। भटार्क-सौराष्ट्र की गति-विधि देखने के लिए एक रणदक्ष सेनापति की आवश्यकता है। वहाँ शक राष्ट्र बड़ा चञ्चल अथच भयानक है। ४३२: प्रसाद वाङ्मय