पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५३

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पृथ्वीसेन-(गूढ़ दृष्टि से देखते हुए) महाबलाधिकृत ! आवश्यकता होने पर आपको वहां जाना ही होगा, उत्कण्ठा की आवश्यकता नहीं। भटार्क-नहीं, मैं तो.. कुमारगुप्त-महाबलाधिकृत ! तुम्हारी स्मरणीय सेवा स्वीकृत होगी। अभी आवश्यकता नहीं। धातुसेन-(हाथ जोड़कर) यदि दक्षिणापथ पर आक्रमण का आयोजन हो तो मुझे आज्ञा मिले । मेरा घर पास है, मैं जाकर स्वच्छन्दतापूर्वक लेट रहूंगा, सेना को भी कष्ट न होने पायेगा। [सब हंसते हैं] मुद्गल- जय हो देव ! पाकशाला पर चढ़ाई करनी तो मुझे आज्ञा मिले । मैं अभी उसका सर्वस्वान्त कर डालूं । [फिर सब हंसते हैं, गम्भीर भाव से अभिवादन करते हुए- एक ओर पृथ्वीसेन और दूसरी ओर भटार्क का प्रस्थान] कुमारगुप्त-मुद्गल ! तुम्हारा कुछ ' मुदगल -महादेवी ने प्रार्थना की है कि युवक भट्टारक की कल्याण-कामना के लिए चक्रपाणि भगवान की पूजा की सामग्री प्रस्तुत है । आर्यपुत्र कब चलेगे? कुमारगुप्त-(मुंह बनाकर) आज तो कुछ पारसीक नर्तवियां आने वाली हैं, अपानक भी है ! महादेवी से कह देना, असन्तुष्ट न हों, कल चलूंगा। मगझा न मुद्गल ? मुद्गल -(खड़ा होकर) परमेश्वर परम भट्टारक की जय हो। (जाता है) धातुसेन -वह चाणक्य कुछ भाँग पीता था। उसने लिखा है कि राजपुत्र भेड़िये हैं, इनसे पिता को सदैव सावधान रहना चाहिए । कुमारगुप्त-यह राष्ट्रनीति है। [अनन्तदेवी का चुपचाप प्रवेश] धातुसेन-भूल गया। उसके बदले उम ब्राह्मण को लिम्वना था कि राजा लोग ब्याह ही न करें, क्यों भेड़ियों-सी सन्तान उत्पन्न हों ? अनन्तदेवी (सामने आकर) आर्यपुत्र की जय हो ! [धातुसेन भयभीत होने का-सा मुंह बनाकर चुप हो जाता है] कुमारगुप्त-'आओ प्रिये ! तुम्हें खोज ही रहा था। अनन्तदेवो --नर्तकियों को बुलवाती आ रही हूँ। कुमारामात्य आदि थे, मंत्रणा में बाधा समझकर, जान-बूझकर ५६ लगाई। आपको तो देखती हूँ कि अवकाश ही नही । (धातुसेन की ओर क्रुद्ध होकर देखती है) २८ स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४३३