पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५६

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जिसमें खेल-खेलकर शिक्षा प्राप्त की, जिसमें जीवन के परमाणु संगठित हुए थे वही छूट गया ! और बिखर गया एक मनोहर स्वप्न, वाह ! वही जो मेरे इस जीवन- पथ का पाथेय रहा ! प्रिय ! संसृति वे सुन्दरतम क्षण यों ही भूल नहीं जाना। वह उच्छृङ्खलता थी अपनी-कहकर मन मत बहलाना । मादकता-सी तरल हंसी के प्याले में उठती लहरी । मेरे नि श्वासों से उठकर अधर चूमने को ठहरी। मैं व्याकुल परिम्भ-मुकुल में बन्दी अलि-सा कॉप रहा। छलक उठा प्याला, लहरी में मेरे सुख को माप रहा। सजग सुप्त सौन्दर्य हुआ, हो चपल चलीं भौहें मिलने । लीन हो गयी लहर, लगे मेरे ही नख छाती छिलने । श्यामा का नखदान मनोहर मुक्ताओं से ग्रथित रहा। जीवन के उस पार उड़ाता हंसी, खड़ा मैं चकित रहा। तुम अपनी निष्ठुर क्रीड़ा के विभ्रम से, बहकाने से। सुखी हुए फिर लगे देखने मुझे पथिक पहचाने-से । उस सुख का आलिंगन करने कभी भूलकर आ जाना। मिलन-क्षितिज-तट मधु-जलनिधिमें मृदु हिलकर उठा जाना । कुमारदास-(प्रवेश करके) साधु ! मातृगुप्त-(अपनी भावनाओं में तल्लीन, जैसे किसी को न देख रहा हो) अमृत के मरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, भ्रमर वंशी बजा रहा था, सौरभ और पराग की चहल-पहल थी। सबेरे सूर्य की किरणे उसे चूमने को लौटती थी, सन्ध्या मे शीतल चांदनी उसे अपनी चादर से ढंक देती थी। उस मधुर सौन्दर्य, उस अतीन्द्रिय जगत् की साकार कल्पना की ओर मैंने हाथ बढ़ाया ही था कि वही स्वप्न टूट गया ! कुमारदास-समझ में न आया, सिंहल और काश्मीर में क्या भेद है। तुम गौरवपूर्ण हो, लम्बे हो, खिंची हुई भौहे हैं, सब होने पर भी सिंहलियों की धुंघराली लटें, उज्ज्वल श्याम शरीर, क्या स्वप्न में भी देखने की वस्तु नहीं ? मातृगुप्त-(कुमारदास को जैसे सहसा देखकर) पृथ्वी की समस्त ज्वाला को जहाँ प्रकृति ने अपने बर्फ के अञ्चल से ढक दिया है, उम हिमालय के- कुमारदास-और बड़वानल को अनन्त जलराशि से सन्तुष्ट कर रहा है, उस रत्नाकर को-अच्छा जाने दो रत्नाकर नीचा है, गहरा है। हिमालय ऊँचा है, गर्व से सिर उठाये है, तब जय हो काश्मीर की। हाँ, उस हिमालय के मातृगुप्त -उस हिमालय के ऊपर प्रभात-सूर्य की सुनहरी प्रभा से आलोकित ४३६ : प्रसाद वाङ्मय