पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५७

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हिम का, पीले पोखराज का-सा एक महल था। उसी से नवनीत की पुतली शोककर विश्व को देखती थी। वह हिम की शीतलता से सुसंगठित थी। सुनहरी किरणों को जलन हुई । तप्त होकर महल को गला दिया । पुतली ! उसका मंगल हो, हमारे अधु की शीतलता उसे सुरक्षित रखे। कल्पना की भाषा के पंख गिर जाते हैं, मौन- नीड़ में निवास करने दो। छेड़ो मत मित्र ! कुमारदास-तुम विद्वान हो, सुकवि हो, तुमको इतना मोह ? मातृगुप्त- यदि यह विश्व इन्द्रजाल ही है, तो उस इन्द्रजाली की अनन्त इच्छा को पूर्ण करने का साधन-यह मधुर मोह चिरजीवी हो और अभिलाषा से मचलने वाले भूखे हृदय को आहार मिले । कुमारदास-मित्र ! तुम्हारी कोमल कल्पना, वाणी में झनकार उत्पन्न करेगी। तुम संचेष्ट बनो, प्रतिभाशील हो तुम्हारा भविष्य बड़ा उज्ज्वल है । मातृगुप्त-उसकी चिन्ता नही । दैन्य, जीवन के प्रचण्ड आतप में सुन्दर स्नेह मेरी छाया बने ! झुलसा हुआ जीवन धन्य हो जायगा । कुमारदास-मित्र ! इन थोड़े दिनों का परिचय मुझे आजीवन स्मरण रहेगा। अब तो मैं सिंहल जाता हूँ-देश की पुकार है। इसलिये मैं स्वप्नों का देश 'भव्य- भारत' छोड़ता हूँ। कविवर ! इस क्षीण परिचय कुमार धातुसेन को भूलना मत- कभी आना। मातृगुप्त-सम्राट् कुमारगुप्त के सहचर, विनोदशील कुमारदास ! तुम क्या कुमार धातुसेन हो? कुमारदास-हां मित्र, लंका का युवराज ! हमारा एक मित्र, एक बाल सहचर प्रख्यात कीति, महाबोधि-बिहार का श्रमण है। उसे और गुप्त साम्राज्य का वैभव देखने पर्यटक के रूप में भारत चला आया था। गौतम के पद-रज से पवित्र भूमि को खूब देखा, और देखा दर्प से उद्धत गुप्त-साम्राज्य के तीसरे पहर का सूर्य । आर्य- अभ्युत्थान का यह स्मरणीय युग है । मित्र, परिवर्तन उपस्थित है। मातृगुप्त-सम्राट् कुमारगुप्त के साम्राज्य में परिवर्तन ! धातुसेन–सरल युवक ! इस गतिशील जगत् में परिवर्तन पर आश्चर्य ! परिवर्तन रुका कि महापरिवर्तन-प्रलय-हुआ ! परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है, निश्चेष्ट-शान्ति मरण है। प्रकृति क्रियाशील है। समय पुरुष और स्त्री की गेंद लेकर दोनों हाथ मे खेलता है। पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की समष्टि अभिव्यक्ति की कुंजी है। पुरुष उछाल दिया जाता है, उत्क्षेपण होता है । स्त्री आकर्षण करती है। यही जड़ प्रकृति का चेतन रहस्य है । स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४३७