पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५८

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मातृगुप्त-निस्सन्देह । अनन्तदेवी के इशारे पर कुमारगुप्त नाच रहे हैं। अद्भुत पहेली है ! धातुसेन-पहेली ! यह भी रहस्य ही है। पुरुष है कुतूहल और प्रश्न; और स्त्री है विश्लेषण, उत्तर और सब बातो का समाधान । पुरुष के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने के लिए वह प्रस्तुत है। उसके कुतूहल-उसके अभावो को परिपूर्ण करने का उष्ण प्रयत्न और शीतल उपचार ! अभागा मनुष्य सन्तुष्ट है-बच्चो के समान । पुरुष ने कहा-'क', स्त्री ने अर्थ लगा दिया-'कौवा', बस, वह रटने लगा। विषय- विह्वल वृद्ध सम्राट तरुणी की आकाक्षाओ के साधन बन रहे वे। काले मेघ क्षिजिन मे एकत्र है, शीघ्र ही अन्धकार होगा। परन्तु आशा का केन्द्र ध्रुवतारा एक युवराज 'स्कन्द' है । निर्मल शून्य आकाश मे शीघ्र ही अनेक वर्ण के मेघ रग भरेगे। एक विकट अभिनय का आरम्भ होने वाला है। तुम भी सम्भवत' उसके अभिनेताओ मे से एक होगे। सावधान ! मिहल तुम्हारे लिये प्रस्तुत है । (प्रस्थान) मातृगुप्त-विचक्षण उदार कुमार । (प्रस्थान) दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य ? [कुसुमपुर में अनन्तदेवी का सुसज्जित प्रकोष्ठ] अनन्तदेवी -जया ! रात्रि का द्वितीय पहर तो व्यतीत हो रहा है, अभी भटार्क के आने का समय नही हा जया-स्वामिनी | आप बडा भयानक खेल रही है। अनन्तदेवी-क्षुद्र हृदय-जो चूहे के शब्द से भी शकित होते है, जो अपनी सांस से ही चीक उठते है, उनके लिये उन्नति का कण्टकित मार्ग नही है। महत्त्वाकाक्षा का दुर्गम स्वर्ग उनके लिये स्वप्न है। जया-परन्तु राजकीय अन्त पुर की मर्यादा बडी कठोर अथच फूल से कोमल कोमल है। अनन्तदेवी-अपनी नियति का पथ मैं अपने पैरो चलूंगी, अपनी शिक्षा रहने दे। [जया कपाट के समीप कान लगाती है, संकेत होता है, गुप्तद्वार खुलते ही भटार्क सामने उपस्थित होता है] भटार्क-महादेवा की जय हो ! अनन्तदेवी-परिहास न करो मगध के महावलाधिकृत ! देवकी के रहते किस साहस से तुम मुझे महादेवी कहते हो ? ४३८: प्रसाद वाङ्मय