पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६५

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पृथ्वीसेन-महाप्रतिहार ! सावधान ! क्या करते हो? पह अन्तविद्रोह का समय नहीं है। पश्चिम और उत्तर से काली घटाएं उमड़ रही हैं, यह समप बल- नाश करने का नहीं है। आओ, हम लोग गुप्त-साम्राज्य के विधानानुसार चरम प्रतिकार करें। बलिदान देना होगा । परन्तु भटार्क ! जिसे तुम खेल समझकर हाथ में ले रहे हो, उस काल-भुजङ्गी राष्ट्रनीति की -प्राण देकर भी--रक्षा करना। एक नही, सौ स्कन्दगुप्त उम पर न्योछावर हों। आर्य साम्राज्य की जय हो ! (छुरा मारकर गिरता है, महाप्रतिहार और महादण्डनायक भी वैसा ही करते हैं) पुरगुप्त-पाखंड स्वयं विदा हो गये- -अच्छा ही हुआ। भटार्क-परन्तु भूल हुई। ऐसे स्वामिभक्त सेवक ! पुरगुप्त-कुछ नही। (भीतर जाता है) भटार्क-तो जायें, सब जाय, गुप्त-साम्राज्य के हीरों के-से उज्ज्वल-हृदय, वीर युवकों का शुद्ध रक्त, सब मेरी प्रतिहिसा राक्षसी के लिये बलि हों ! [मंद होते प्रकाश में दृश्यान्तर] षष्ठ दृश्य [नगर-प्रान्त के पथ में] मुद्गल - (प्रवेश करके) किसी के सम्मान-सहित निमन्त्रण देने पर पवित्रता से हाथ-पैर धोकर चौके पर बैठ जाना-एक दूसरी बात है; और भटकते, थकते, उछलते-कूदते, ठोकर खाते और लुढ़कते-हाथ-पैर की पूजा कराते हुए मार्ग चलना- एक भिन्न वस्तु है । कहाँ हम और कहाँ दौड़, कुसुमपुरी से अवन्ति और अवन्ति से मूलस्थान ! इस बार की आज्ञा का तो पालन करता हूँ; परन्तु यदि, तथापि, पुनश्च, फिर भी, कभी ऐसी आज्ञा मिली कि इस ब्राह्मण ने साष्टांग प्रणाम किया। अच्छा, इस वृक्ष की छाया में बैठकर विचार कर लूं कि संकड़ों योजन लौट चलना अच्छा है कि थोड़ा और चलकर काम कर लेना। (गठरी रख बैठकर ऊँघने लगता है) [मातृगुप्त का प्रवेश] मातृगुप्त- मुझे तो युवराज ने मूलस्थान की परिस्थिति संभालने के लिए भेजा, देखता हूं कि वह मुद्गल भी यहां आ पहुंचा ! चलें, इसे कुछ तंग करें, थोड़ा मनोविनोद ही सही। [कपड़े से मुंह छिपाये, गठरी खींचकर चलता है] मुद्गल -(उठकर) ठहरो भाई, हमारे जैसे साधारण लोग अपनी गठरी आप ही ढोते हैं, तुम कष्ट न करो। स्कन्दगुप्त विक्रमादिय : ४४५