पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

-क्या ? [मातृगुप्त चक्कर काटता है, मुद्गल पीछे-पीछे दौड़ता है] मातृगुप्त-(दूर खड़ा होकर) अब आगे बढ़े कि तुम्हारी टांग टूटी ! मुद्गल-अपनी गठरी बचाने मे टाँग का टूटना बुरा नही, अपशकुन नही । तुम यह न समझना कि हम दूर चलते-चलते थक गये है । तुम्हारा पीछा न छूटेगा। हम ब्राह्मण है, हमसे शास्त्रार्थ कर लो । डण्डा न दिखाओ । हाँ, मेरी गठरी जो तुम लेते हो, इसमें कौन-सा न्याय है ? बोलो- मातृगुप्त न्य य? तब तो तुम आतावाक्य अवश्य मानते होगे? मुद्गल-अच्छा तो पर्कशास्त्र लगाना पड़ेगा ? मातृगुप्त-हाँ, तुमने गीता पढी होगी? मुद्गल -हाँ अवश्य, ब्राह्मण और गीता न पढ़े ! मातृगुप्त-उसमे लिखा है कि "न त्वेवाहं जातु नाऽसौ न त्वं नेमे"- '-न हम है, न तुम हो. न यह वस्तु है, न तुम्हारी है, न हमारी-फिर इम छोटी-सी गठरी के लिए इतना झगडा ! मुद्गल-ओहो ! तुम नही समझे ! मातृगुप्त- मुद्गल-गीता सुनने के बाद क्या हुआ? मातृगुप्त - महाभारत मुद्गल-तब भइया, इस गठरी के लिए महाभारत का एक लघु संस्करण हो जाना आवश्यक है । गठरी मे हाथ लगाया कि डण्डा (तानते हुए) लगा। मातृगुप्त-मुद्गल, डण्डा मत तानो, मै वैमा मूर्ख नही कि सूच्यग्र-भाग के लिए दूध और मधु से बना हुआ रक्त एक बूंद भी गिराऊँ ! (गठरी देता है) मातृगुप्त मातृगुप्त -(नेपथ्य का कोलाहल सुनते ) हाँ मुद्गल । इधर तो शकों और हूणों को सम्मिलित सेना घोर आतक फैला रही है, चारो ओर विप्लव का साम्राज्य है। निरीह भारतीयों की घोर दुर्दशा है । मुद्गल-और मै महादेवी का सन्देश लेकर अन्ति गया, वहाँ युवराज नही थे। बलाधिकृत पर्णदत्त की आज्ञा हुई कि महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त को जिस तरह हो, खोज निकालो । यहाँ तो विकट समस्या है । हम लोग क्या कर सकते है ? मातृगुप्त -कुछ नही, केवल भगवान से प्रार्थना । साम्राज्य में कोई सुननेवाला नहीं, अकेले युवराज स्कन्दगुप्त क्या करेगे? मुद्गल-परन्तु भाई, हम ईश्वर होते तो इन मनुष्यों की कोई प्रार्थना सुनते ही नहीं। इनको हर काम मे हमारी आवश्यकता पड़ती है। मैं तो घबरा जाता, भला वह तो कुछ सुनते भी है । मुद्गल - अरे कौन ! ४४६ : प्रसाद वाङ्मय