पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६८

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बना लो सदा स्त्रिया-हे नाथ ! हमारे निर्बलों के बल कहाँ हो, हमारे दीन के सम्बल कहाँ हो? नही हो नाम ही बस नाम है क्या, सुना केवल यहां हो या वहाँ हो ? पुकारा जब किसी ने तब सुना था, भला विश्वास यह हमको कहाँ हो ? [स्त्रियों को पकड़ कर हूण खींचते हैं] मातृगुप्त-हे प्रभु ! हमे विश्वास दो अपना स्वच्छन्द हों-चाहे जहाँ हों इन निरीहो के लिये प्राण उत्सर्ग करना धर्म है। कायरो ! स्त्रियों पर यह अत्याचार ! [तलवार से बंधन काटता है, लपकते हुए एक संन्यासी का प्रवेश] संन्यासी-साधु ! वीर ! सम्हलकर खड़े हो जाओ-भगवान पर विश्वास करके खड़े हो। मुद्गल-(पहचानता हुआ) जय हो, महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त की जय हो ! [सब उत्साहित होकर भिड़ जाते है, हूण सैनिक भागते है] गोविन्दगुप्त -अच्छा मुद्गल ! तुम यहाँ कसे ? और युवक ! तुम कौन हो? मातगुप्त-युवराज स्कन्दगुप्त का अनुचर । मुद्गल-वीर पुङ्गव ! इतने दिनो पर दशन भी हुआ तो इस वेश में ! गोविन्दगुप्त [-क्या कहूँ मुद्गल ! स्कन्द वहाँ है ? मातृगुप्त-उज्जयिनी मे ! गोविन्दगुप्त -अच्छा है, सुरक्षित है। चलो, दुर्ग मे हमारी सेना पहुंच चुकी है। वहाँ विश्राम करो। यहां का प्रबन्ध करके हमको शीघ्र आवश्यक कार्य से मालव जाना है । अब हूणों के आतंक का डर नही। सब-जय हो महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त की ! गोविन्दगुप्त-पुष्यमित्रों के युद्ध का क्या परिणाम हुआ ? मातृगुप्त-विजय हुई। गोविन्दगुप्त-और मालव का? मुद्गल-युवराज थोड़ी सेना लेकर बन्धुवर्मा की सहायता के लिये गये है। गोविन्दगुप्त-(ऊपर देखकर) वीरपुत्र है । स्कन्द ! आकाश के देवता और पृथ्वी की लक्ष्मी तुम्हारी रक्षा करे । आर्य-साम्राज्य के तुम्ही एकमात्र भरोसा हो। ४४८प्रसाद वाङ्मय