पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६९

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मुद्गल-तब, महाराजपुत्र ! बड़ी भूख लगी है। प्राण बचते ही भूख का घावा हो गया, शीघ्र रक्षा कीजिये। गोविंदगुप्त-हाँ-हाँ, सब लोग चलो। [सब जाते हैं/दृश्यांतर]] सप्तम दृश्य [अवंती के दुर्ग में देवसेना, विजया, जयमाला] विजया-विजय किसकी होगी-कौन जानता है। जयमाला-तुमको केवल अपने धन की रक्षा का इतना ध्यान है ! देवसेना-और देश के मान का, स्त्रियों की प्रतिष्ठा का, बच्चों की रक्षा का कुछ नही। विजया-(संकुचित होकर) नही, मेरा अभिप्राय यह नहीं था। जयमाला-परंतु एक उपाय है। विजया-वह क्या ? जयनाला - रक्षा का निश्चित उपाय । देवसेना-तुम्हारे पिता ने तो उस समय नही माना, न सुना, नहीं तो आज इस भय का अवसर ही न आता। जयमाला-तुम्हारी अपार धन-राशि में से एक क्षुद्र अंश-वही यदि इन धन- लोलुप शृगालों को दे दिया जाता, तो... विजया-किंतु इस प्रकार अर्थ देकर विजय खरीदना तो देश की वीरता के प्रतिकूल है ! जयमाला-ठहरो, कोई आ रहा है। बंधुवर्मा-(प्रवेश करके) प्रिये ! अभी तक युवराज का कोई संदेश नहीं मिला। संभवतः शकों और हूणों की सम्मिलित वाहिनी से आज दुर्ग की रक्षा न कर सकूँगा। जयमाला-नाथ ! तब क्या मुझे स्कंदगुप्त का अभिनय करना होगा? क्या मालवेश को दूसरे की सहायता पर ही राज्य करने का साहस हुआ था? जाओ प्रभु ! सेना लेकर सिंह-विक्रम से शत्रु पर टूट पड़ो ! दुर्ग-रक्षा का भार मैं लेती हूँ। विजया-महाराज ! यह केवल वाचालता है। दुर्ग-रक्षा का भार मुयोग्य सेनापति पर होना चाहिये । बंधुवर्मा-घबराओ मत श्रेष्ठि-कन्ये ! जयमाला -स्वर्ण-रत्न की चमक देखने वाली आंखें बिजली-सी तलवारों के २९ स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४४९