पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७१

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खेलता जैसे छाया-धूप। भरा नैनों में मन में रूप । भीमवर्मा-(सहसा प्रवेश करके) भाभी, दुर्ग का द्वार टूट चुका है। हम अंतःपुर के बाहरी द्वार पर हैं। अब तुम लोग प्रस्तुत रहना। जयमाला-उनका क्या समाचार है ? भीमवर्मा-अभी कुछ नही मिला। गिरिसंकट में उन्होंने शत्रुओं को रोका था, परंतु दूसरी शत्रु-सेना गुप्त मार्ग से आ गई । मैं जात हूँ, सावधान ! [जाता है | नेपथ्य में कोलाहाल | भयानक शब्द] विजया---महारानी ! किसी सुरक्षित स्थान में निकल चलिये। जयमाला-(छुरी निकालकर) रक्षा करने वाली तो पास है, डर क्या, क्यों देवसेना? देवसेना-भाभी । श्रेष्ठि-कन्या के पास नहीं है, उन्हें भी दे दो। विजया न न न, मैं लेकर क्या करूंगी, भयानक ! देवसेना-इतनी मुंदर वस्तु क्या कलेजे में रख लेने योग्य नही है विजया (धड़ाके का शब्द सुनकर) ओह ! तुम लोग बड़ी निर्दय हो ! जयमाला-जाओ, एक ओर छिपकर खड़ी हो जाओ ! [रक्त से लथपथ भीमवर्मा का प्रवेश] भीमवर्मा-भाभी ! रक्षा न हो सकी, अब तो मैं जाता हूँ। वीरों के वरणीय सम्मान को अवश्य प्राप्त करूँगा। परंतु... जयमाला-हम लोगों की चिंता न करो---वीर ! स्त्रियों की, ब्राह्मणों की, पीड़ितों और अनाथों की रक्षा में प्राण-विसर्जन करना क्षत्रियों का धर्म है। एक प्रकार की ज्वाला अपनी तलवार से फैल। दो। भैरव के गीनाद के समान प्रबल हुंकार से शत्रु का हृदय कंपा दो-- वीर ! बढ़ो, गिरो तो मध्याह्न के भीषण सूर्य के समान-आगे पीछे, सर्वत्र आलोक और उज्ज्वलना रहे ! [भीमवर्मा का प्रस्थान | द्वार का टूटना | विजयी शत्रु-सेनापति का प्रवेश | पुनः भीमवर्मा का आकर रोकना / गिरते-गिरते भीमवर्मा का जयमाला और देवसेना की सहायता से युद्ध | सहसा स्कन्दगुप्त का सैनिकों के साथ प्रवेश | 'युवराज स्कन्दगुप्त की जय' का घोष / शक और हूण स्तंभित होते हैं] स्कंदगुप्त-ठहरो देवियो ! स्कन्द के जीवित रहते स्त्रियों को शस्त्र नहीं चलाना पड़ेगा। [युद्ध शत्रु पराजित और बंदी होते हैं] स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४५१