पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७३

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विजया-तो राजकुमारी-मैं कह दूं ? देवसेना-हां-हो, तुम्हें कहना ही होगा। विजया-मुझे तो आज तक किसी को देखकर हारना नही पड़ा। हाँ, एक युवराज के सामने मन ढीला हुआ, परंतु मैं-उसे कुछ राजकीय प्रभाव कह कर टाल भी सकती हूं। देवसेना-विजया ! वह टालने मे, बहला देने मे, नही हो सकता ! तुम भाग्यवती हो, देखा यदि यह रवर्ग तुम्हारे हाथ लगे। (सामने देखकर) अरे लो ! (दोनों जाती हैं | स्कन्दगुप्त का प्रवेश, पीछे चक्रपालित) स्कंदगुप्त-विजय का क्षणिक उल्लास हृदय की भूख मिटा देगा? कभी नही । वीरों का भी क्या ही व्यवसाय है, नया ही उन्मत भावना है। चक्रपालिन ! संसार मे जो सबसे महान् है, वह क्या है ? त्याग त्याग का ही दूसरा नाम महत्त्व है। प्राणो का मोह त्याग करना-वीरता का रहस्य है । चक्रपालित-युवराज ! मम्पूर्ण ममार कर्मण्य वी । की चित्रशाला है । वीरत्व एक स्वावलंबी गुण है। प्राणियो का विवाम मभवत इसी विचार के ऊज्जित होने से दु । जीवन मे वही तो विजयी होता है जो रात-दिन 'युद्धस्व विगतज्वरः' का शखनाद सुना करता है । स्कंदगुप्त-चक्र ! ऐमा जीवन से विडनना है, जिसके लिए रात-दिन लड़ना पड़े ! आकाश मे जब शीतल शुभ्र शरद-गशि का विलाम ही, तव दॉत-पर दाँत रखे, मुट्ठियाँ बाँधे- लाल आँखो से एक दूसरे को घुग करे ! वमत के मनोहर प्रभात मे, निभृत कगारो मे चुपचाप बहनेवाली मरिताओ का स्रोत गरम रक्त बहाकर लाल कर दिया जाय | नहीं-नही चत्र | मेरी समझ मे मानव जीवन का यही उद्देश्य नही है । कोई और भी निगूढ़ रहस्य है, चाहे मै स्वय उसे न जान सका हूँ। चक्रपालित - सावधान युवराज | प्रत्येक जीवन में कोई वा काम करने के पहले ऐसे ही दुर्बल विचार आते है । वह तुच्छ प्राणो का मोह है । अपने को झगड़ो से अलग रखने के लिए, अपनी रक्षा के लिए यह उसमा क्षुद्र प्रयत्न होता है अयोध्या चलने के लिए आपने कब का समय निश्चित किया है ? राजसिंहासन कबतक सूना रहेगा ? पुष्यमित्रों और शको के युद्ध समाप्त हो चुके हैं । स्कंदगुप्त-तुम मुझे उत्तेजित कर रहे हो। चक्रपालित-हाँ युवराज ! मुझे यह अधिकार है। स्कंदगुप्त-नही चक्र ! अश्वमेध-पत्रिम स्वर्गीय सम्राट् कुमारगुप्त का आसन मेरे योग्य नहीं है । मैं झगड़ा नही करना चाहता, मुझे सिहासन न चाहिये । पुरगुप्त को रहने दो । मेरा अकेला जीवन है । मुझे स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४५३