पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७४

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? चक्रपालित-यह नहीं होगा। यदि राज्यशक्ति के केन्द्र मे ही अन्याय होगा, तब तो समग्र राष्ट्र अन्यायो का क्रीड़ा-स्थल हो जायेगा। आपको सबके अधिकारों की रक्षा के लिए अपना अधिकार सुरक्षित करना ही पड़ेगा। [चर का आकर कुछ संकेत करना / दोनों का प्रस्थान | देवसेना और विजया का प्रवेश विजया-यह क्या राजकुमारी ! युवराज तो उदासीन है । देवसेना--हाँ विजया ! युवराज की मानसिक अवस्था कुछ बदली हुई है। विजया-दुर्बलता इन्हे राज्य से हटा रही है। देवसेना-कही तुम्हारा सोचा हुआ युवराज के महत्त्व का परदा तो नही हट रहा है ? क्यो विजया ! वैभव का अभाव तुम्हे खटकने तो नहीं विजया-राजकुमारी ! तुम तो निर्दय वाक्य-बाणो का प्रयोग कर रही हो । देवसेना-नही विजया, बात ऐमी नही है ! धनवानो के हाथ मे एक ही माप है; वे-विद्या, सौदर्य, वल, पवित्रता -और तो क्या-हृदय को भी उसी से मापते है । वह माप है उनका-ऐश्वर्य्य ! विजया -परतु राजकुमारी ! इस उदार दृष्टि से नो चक्रपालित क्या पुरुष नही है ? अवश्य है । वीर हृदय है, प्रशस्त वक्ष है, उदार मुख-मंडल है । देवसेना-और मबसे अन्छी एक बात है-तुम समझती हो कि यह महन्वा- काक्षी है। उसे तुम अपने वैभव से क्रय कर सकती हो-क्यो ? भाई, तुमको लेना है, तुम स्वयं समझ लो. मेरी दलाली नही चलेगी। विजया-जाओ राजकुमारी- देवसेना-एक गाना सुनोगी ? विजया-महारानी खोजती होगी, अब चलना चाहिये । देवसेना--तब तुम अभी प्रेम करने का, मनुष्य फैमाने का, ठीक सिद्धात नही जानती हो। विजया-क्या ? देवसेना-नये ढग के आभूपण, सुन्दर वमन, भरा हुआ यौवन-यह सब तो चाहिये ही, परतु एक वस्तु और चाहिये । पुरुष को वशीभूत करने के पहले, चाहिये-धोखे की टट्टी। मेरा तात्पर्य हे-एक वेदना अनुभव करने का, एक बिह्वलता का अभिनय उसके मुख पर रहे-जिससे कुछ आडी-तिरछी रेखाये मुख पर पड़ें और मूर्ख मनुष्य उन्ही को लेने के लिए व्याकुल हो जाय । और फिर, दो बंद गरम-गरम आंसू और इसके बाद एक तान –वागीश्वरी की करुण-कोमल तान । बिना इसके सब रंग फीका विजया-उम समय भी गान? ४५४: प्रसाद वाङ्मय