पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७५

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देवसेना-बिना गान के कोई कार्य नही । विश्व के प्रत्येक कंप में एक ताल है । आह ! तुमने सुना नही ? दुर्भाग्य तुम्हारा ! सुनोगी ? विजया-राजकुमारी ! गाने का भी रोग होता है क्या ? हाथ को ऊंचे-नीचे हिलाना, मुंह बनाकर एक भाव प्रकट करना, फिर ,शिर की इस जोर से हिला देना, जैसे उस तान से शून्य में एक हिलोर उठ गई ! देवसेना -विजया ! प्रत्येक परमाणु के मिलने में एक सम है, प्रत्येक हरी-हरी पत्ती के हिलने में एक लय है। मनुष्य ने अपना स्वर विकृत कर रक्खा है। इसी से तो उसका स्वर विश्व-बीणा में शीघ्र नहीं मिलता। पांडित्य के मारे जब देखो, बेताल-बेसुर बोलेगा। पक्षियों को देखो, उनकी 'चहचह', 'कलकल', 'छलछल' में, काकली मे-रागिनी है। विजया-राजकुमारी, क्या कह रही ही ? देवसेना-तुमने एकांत टीले पर, सबसे अलग, शरद के सुन्दर प्रभात मे फूला हुआ, फूलों से लदा हुआ-पारिजात बृक्ष देखा है ? विजया-नही तो। उसका स्वर अन्य वृक्षो से नहीं मिलता। वह अकेले अपने सौरभ की तान से दक्षिण पवन में कंप उत्पन्न करता है, कलियो को चटका कर, ताली बजाकर, झूम-झूम कर नाचता है। अपना नृत्य, अपना संगीत, वह स्वयं देखता है-सुनता है। उसके अंतर में जीवनशक्ति वीणा बजाती है। वह बड़े कोमल स्वर में गाता है- धने-प्रेम-तरु-तलै बैठ छाँह लो भव-आतप से तापित और जले, छाया है विश्वास की श्रद्धा-सरिता-कूल, सिंची आंसुओं से मृदुल है परागमय धूल, यहाँ कौन जो छले। फूल चू पड़े बात से भरे हृदय का घाच, मन की कथा व्यथा-भरी बैठो सुनते जाव, कहाँ जा रहे चले। पी लो छवि-रस-माधुरी सींचो जीवन-बेल, जी लो सुख से आयु-भर यह माया का खेल, [बंधुवर्मा का प्रवेश] देवसेना-(संकुचित होती-सी) अरे भइया- बंधुवर्मा-देवसेना, तुझे गाने का भी विचित्र रोग है । स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४५५