पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७७

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प्रपंचबुद्धि-प्रत्येक भित्तिके, किवाडके-- कान होते है, समझ लेना चाहिये, देख लेना चाहिये। शर्वनाग-अच्छी बात है, कहिये ! भटार्क-पहले तुम चुप तो रहो। [शर्व चुप रहने की मुद्रा बनाता है] प्रपंचबुद्धि-धर्म की रक्षा करने के लिए प्रत्येक उपाय से काम लेना होगा। शर्वनाग-भिक्ष शिरोमणे ! वह कौन-मा धर्म है, जिसकी हत्या हो रही है ? प्रपंचबुद्धि -यही- हत्या रोकना, अहिसगौतम का धर्म है। यज्ञ की बलियों को रोकना, 7 रुणा और सहानभूति की प्रेरणा मे कल्याण का प्रचार करना। हाँ, अवमर ऐमा है कि हम वह काम भी करे जिममे तुम चौक उठो। परंतु नही, वह तो तुम्हें करना ही होगा। भटार्क -क्या ? प्रपंचबुद्धि --महादेवी देवकी के कारण गजधानी विद्रोह की संभावना है। शर्वनाग-ठीक है, तभी आप चौपते है, और तभी धर्म की रक्षा होगी। हत्या द्वारा हत्या का निषेध र लेगे-मो? भटार्क ठहगे गर्व । परंतु महाग्थविर ! या उसकी अत्यंत आवश्यकता है ? प्रपंचबुद्धि -नितांत? शर्वनाग- बिना इमके काम नहीं चलेगा? धर्म नही प्रगरित होगा? प्रपंचवुद्धि-ओर यह गाम गर्व को करना होगा। शर्वनाग - (चौंककर) मुझे ! मै कदापि नही "। भटार्क-शीघ्रता न कगे शर्व ! भविष्यत् के मुयो मे इसकी तुलना करो। शर्वनाग-नाप-तौल मै नही जानता, मुझे शत्रु दिखा दो। मैं भूखे भेड़िये की भांति उसका रक्तपान कर लूंगा, चाहे मैं ही क्यों न मग जाऊँ-परंतु, निरीह- हत्या--यह मुझसे नही..! भटार्क-मेरी आज्ञा ! शर्वनाग-तुम सैनिक हो -उठाओ तलवार ! चलो, दो सहस्र शत्रुओं पर हम दो मनुष्य आक्रमण करे । देखे, मरने से कौन भागता है ! कायरता-अबला महादेवी की हत्या ! किम प्रलोभन मे तुम पिशाच वन रहे हो। भटार्क -सावधान शर्व- इस चक्र से तुम नहीं निकल सकते ! या तो करो या मरो। मैं सज्जनका का स्वाग नहीं ले सकता, मुझे वह नही भाना। मुझे कुछ लेना है, वह जैसे मिलेगा-लूंगा ! साथ दोगे तं तुम भी लाभ में रहोगे। शर्वनाग-नही भटार्क ! लाभ के लिए ही मनुष्य सब काम करता, तो पशु बना रहना ही उसके लिए पर्याप्त था, मुझसे यह नही होने का। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४५७