पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४७९

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शर्वनाग-क्यों सेनापति टल गई ? प्रपंचबुद्धि-उसी विपत्ति का निवारण करने के लिए मैंने यह कष्ट सहा। मैं तुम लोगों के भूत, भविष्यत् और वर्तमान का नियामक, रक्षक और द्रष्टा हूं। जाओ, अब तुम लोग निर्भय हो ! भटार्क -धन्य गुरुदेव शर्वनाग--आश्चर्य ! भटार्क-शंका न करो, श्रद्धा करो, श्रद्धा का फल मिलेगा। शर्व, अब भी तुम विश्वास नहीं करते? शर्वनाग-करता हूं। जो आज्ञा होगी वही करूंगा। प्रपंचबुद्धि--अच्छी बात है चलो- [सब जाते हैं कुमारदासरूपी धातुसेन का प्रवेश] धातुसेन -मैं अभी यही रह गया, सिहल नही गया। इस रहस्यपूर्ण अभिनय को देखने की इच्छा बलवती हुई । परन्तु मुद्गल तो अभी नही आया, यहाँ तो आने को था। (देखते हुए) लो- मुद्गः (समीप से देखते) क्यो भटगा, तुम्ही धातुसेन हो ? धातुसेन -(हंसकर) पहचानते नही ? मुद्गल-क्सिी की धातु पहचानना बडा असाधारण कार्य है। तुम किस -वह आ गया। धातु के हो? धातुसेन-भाई, सोना अत्यन्त घन होता है बहुत शीघ्र गरम होता है, और हवा लग जाने से शीतल हो जाता है । मूल्य भी वहुत लगता है । इतने पर भी सिर पर बोझ-सा रहता है। मैं सोना नही हू, क्योकि उसकी रक्षा के लिए भी एक धातु की आवश्यकता होती है वह है 'लोहा' । मुद्गल -तब तुम लोहे के हो? धातुसेन-लोहा बड़ा कठोर होता है। कभी-कभी वह लोहे को भी काट डालता है। उहूं, भाई ! मैं तो मिट्टी हू-मिट्टी जिसम से सब निकलते हैं। मेरी समझ मे तो शरीर की धातु मिट्टी है, जो किसी के लोभ की सामग्री नही, और वास्तव मे उसी के लिए मब धातु अस्त्र बनकर चलते है, लडते है, जलते है, टूटते है, फिर मिट्टी हो जाते है। इसलिए मुझे मिट्टी समझो -धूल समझो। परन्तु यह तो बताओ, महादेवी की मुक्ति के लिए क्या उपाय सोचा ? मुद्गल-मुक्ति का उपाय ! अरे ब्राह्मण की मुक्ति भोजन करते हुए मरने में, बनियों की दिवाले की चोट से गिर जाने मे और शूद्रों की-हम तीनों की ठोकरों से मुक्ति-ही-मुक्ति है । महादेवी तो क्षत्राणी है, मग्भवतः उनकी मुक्ति शस्त्र से होगी। धातुसेन-तुमने ठीक सोचा, आज अर्द्धरात्रि में-कारागार में। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४५९