पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४८४

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देवकी-शांत हो रामा ! देवकी अपने रक्त के बदले और किसी का रक्त नहीं गिराना चाहती । चल, रक्त के प्यासे कुत्ते ! चल अपना काम कर ! [शर्व आगे बढ़ता है] अनंतदेवी-क्यो देवकी ! राजसिंहासन लेने की स्पर्धा क्या हुई ? देवकी-परमात्मा की कृपा है कि मै स्वामी के रक्त से कलुषित सिंहासन पर न बैठ सकी। भटार्क--भगवान् का स्मरण कर लो। देवकी -मेरे अतर की करुण-कामना एक थी-स्कन्द को देख लूं। परंतु तुम लोगों से-हत्यारो से-मैं उसके लिए भी, प्रार्थना न करूंगी। प्रार्थना उसी विश्वंभर के श्री चरणो मे है, जो अपनी अनत दया का अभेद्य कवच पहना कर मेरे स्कन्द को सदैव सुरक्षित ररोगा। शर्मनाग–अन्छा तो (खड्ग उठाता है | रामा सामने आकर खड़ी हो जाती है) हट जा अभागिनी ! रामा मूर्ख ! अभागा कौन है--जो ससार के सब स पवित्र धर्म कृतज्ञता को भूल जाता है --और भूल जाता है कि सबके ऊपर एक अटल अरष्ट का नियामक सर्वशक्तिमान है, वह या मै ? शर्मनाग- कहता हूं कि अपनी लोथ मुझे पैरो से न ठकराने दे ! रामा-टुकडे का लोभी ! तू मती का अपमान करे, तेरी यह म्पर्धा ? तू कीड़ों से भी तुच्छ है । पहले मै महँगी, तब महादेवी । अनंतदेवी-(क्रोध से) तो पहले इमी का अत करो शर्व ! शीघ्रता करो। शर्मनाग-अच्छा नो वही होगा (प्रहार करने पर होता है | किवाड़ तोड़कर स्कंद भीतर घुस आता है | पीछे मुद्गल और धातुसेन आते ही शर्वनाग की गर्दन दबाकर तलवार छीन लेता है) स्कंदगुप्त-(भटार्क से) क्यो रे नीन पशु ! तेरी क्या इन्छा है ? भटार्क - राजकुमार ! वीर के प्रति उचित व्यवहार होना चाहिये । स्कंदगुप्त-तू वीर है ? अर्द्धरात्रि में निस्सहाय अबला महादेवी की हत्या के उद्देश्य से घुमने वाले चोर -तुझे भी वीरना का अभिमान है - तो द्वद्वयुद्ध के लिए आमंत्रित करता हूँ-बचा अपने को ! (भटार्क दो-एक हाथ चलाकर घायल होकर गिरता है) स्कंदगुप्त-मेरी मौतेली मां तु..? अनंतदेवी-स्कंद ! फिर भी मै तुम्हारे पिता की पत्नी हूँ। [घुटनों के बल बैठ कर हाथ जोड़ती है] स्कंदगुप्त-अनंतदेवी ! कुसुमपुर मे पुरगुप्त को लेकर चुपचाप बैठी रहो। 1 ४६४: प्रसाद वाङ्मय