पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४८७

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भीमवर्मा-ठहरो भया, हम भी चलते हैं । चक्रपालित-(प्रवेश करके) धन्य वीर ! तुमने क्षत्रिय का शिर ऊंचा किया है । बंधुवर्मा ! आज तुम महान् हो, हम तुम्हारा अभिनंदन करते हैं। रण में, वन में, विपत्ति में, आनंद में, हम सब सहभागी होंगे। धन्य तुम्हारी जननी-जिसने आर्य-राष्ट्र का ऐसा शूर सैनिक उत्पन्न किया। बंधुवर्मा- स्वागत चक्र | मालवेश्वरी की जय हो ! अब हम सव सैनिक जाते हैं। चक्रपालित-ठहरो बंधु ! एक सुखद समाचार सुन लो। पिताजी का अभी- अभी पत्र आया है कि मौराष्ट्र के शको को निर्मूल करके परम भट्टारक मालव के लिए प्रस्थान कर चुके हैं। बंधुवर्मा - संभवतः महाराजपुत्र उत्तरापथ की सीमा-रक्षा करेगे। चक्रपालित-हां बंधु ! देवसेना-चलो भाई, मैं भी तुम लोगों की सेवा करूंगी। जयमाला -(घुटने टेक कर) मालवेश्वर की जय हो ! प्रजा ने अपराध किया है, हंट दीजिये। पतिदेव ! आपकी दासी क्षमा मांगती है। मेरी आँखें खुल गई। आज हमने जो राज्य पाया है-वह विश्व-साम्राज्य से भी ऊँचा है-महान् है । मेरे स्वामी और ऐसे महान्-धन्य हूँ मैं ! (बंधुवर्मा सिर पर हाथ रखता है) दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [पथ में भटार्क और उसकी माता] कमला-तू मेर। पुत्र है कि नहीं ? भटार्क-माँ संसार मे इतना ही तो स्थिर सत्य है, और मुझे इतने पर ही विश्वाम है। संसार के समस्त लाछनो का मैं तिरस्कार करता हूँ, किस लिए ? केवल इसीलिए कि तू मेरी मां है -और वह जीवित है ! कमला -और मुझे इसका दुख है कि मैं मर क्यों न गई, मैं क्यों अपने कलंक- पूर्ण जीवन को पालती रही। भटार्क ! तेरी मां को एक ही आशा थी कि पुत्र देश का सेवक होगा-म्लेच्छों से पददलित भारत भूमि का उद्धार करके मेरा कलंक धो डालेगा, मेरा शिर ऊँचा होगा। परंतु हाय ! भटार्क - माँ ! तो तुम्हारी आशाओं को मैंने विफल किया ? क्या मेरी खड्गलता आग के फूल नही बरसाती ? क्या मेरे रण-नाद वन-ध्वनि के समान शत्रु के कलेजे नही कंपा देते ? क्या तेरे भटार्क का लोहा भारत के क्षत्रिय नही मानते ? . स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४६७