पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४८८

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भटार्क- कमला-मानते हैं-इसी से तो और भी ग्लानि है । -वर लौट चलो मा ! ग्लानि क्यों है ? कमला-इसलिए कि तू देशद्रोही है। तू राजकुल की शाति का प्रलयमेघ बन गया, और तू साम्राज्य के कुचक्रियों में से एक है। ओह ! नीच ! कृतघ्न ! कमला कलंकिनी हो सकती है, परंतु यह नीचता, कृतघ्नता, उसके रक्त में नही । (रोती है) [विजया का प्रवेश] विजया-माता ! तुम क्यों रो रही हो? (भटार्क की ओर देखकर) और यह कौन ? क्यों जी-तुमने इस वृद्धा का क्यो अपमान किया है ? कमला-देवि । यह मेरा पुत्र था। विजया -था ! क्या अब नही? कमला-नही, इसने महाबलाधिकृत होने की लालच में अपने हाथ-पैर पाप की शृंखला मे जकड दिए; अब फिर भी उज्जयिनी मे आया है-किसी षड्यंत्र के लिए। विजया-कौन-तुम महाबलाधिकृत भटार्क हो । और तुम्हारी माता की यह दीन दशा ! कमला-ना बेटी ! उसे कुछ मत कहो, मैं स्वयं इमका ऐश्वर्य त्याग कर चली आई हूँ। महाकाल के मंदिर मे भिक्षा ग्रहण कर इसी उज्जयिनी मे पडी रहूंगी, परंतु इसमे. भटार्क-माँ ! अब और लज्जित न करो। चलो -घर चलो। विजया-(स्वगत) अहा ! कैसी वीरत्व-व्यंजक मनोहर मूत्ति है ! और गुप्त-माम्राज्य का महाबलाधिकृत ! कमला-इस पिशाच ने छलने के लिए रूप बदला है। सम्राट् का अभिषेक होने वाला है, यह उसी मे कोई प्रपंच रचने आया है। मेरी कोई न सुनेगा, नही तो मैं स्वयं इसे दंडनायक को समर्पित कर देती। [सहसा मातृगुप्त, मुद्गल और गोपिंदगुप्त का प्रवेश मुद्गल-कौन ! भटार्क ? मातृगुप्त-अरे यहां भी ! [भटार्क तलवार निकालता है/गोविंदगुप्त उससे तलवार छीन लेते हैं] मुद्गल-महाराजपुत्र गोविंदगुप्त की जय ! गोविंदगुप्त-कृतघ्न ! वीरता उन्माद नहीं है. - आंधी नहीं है, जो उचित- अनुचित का विचार न करती हो। केवल शस्त्रबल पर टिकी हुई वीरता विना पैर की होती है। उसकी दृढ़ भित्ति है-न्याय ! तू उसे कुचलने पर गिर ऊँचा उठाकर ४६८. प्रसाद वाङ्मय