पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४८९

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नही रह सकता, मातृगुप्त-बंदी करो इसे ! (कमला के प्रति) और तुम कौन कमला-मैं इस कृतघ्न की माता हूँ। अच्छा हुआ, मैं तो स्वयं यही विचार करती थी। गोविंदगुप्त -यह तो मैंने अपने कानों से सुना। धन्य हो देवि ! तुम जैसी जननियां जब तक उत्पन्न होंगी, तब तक आर्य-राष्ट्र का विनाश असंभव है और वह युवती कौन है ? कमला-मुझे सहायता देती थी, कोई अभिजात कुल की कन्या है इसका कोई अपराध नहीं। मुद्गल-अरे राम ! यह अवश्य कोई भयानक स्त्री होगी ! मातृगुप्त-परंतु यह अपना कोई परिचय भी नही दे रही है ! विजया-मै अपराधिनी हूँ, मुझे भी बंदी करो। भटार्क यह क्यों, इस युवती से तो मैं परिचित भी नही हूँ-इसका कोई अपराध नही। विजया-(स्वगत) ओह ! इस आनंद महोत्सव में मुझे कौन पूछता है, मैं मालव मे अब किस काम की हूँ ! जिसके भाई ने समस्त राज्य का अर्पण कर दिया है-वह देवसेना और कहाँ मैं ! (भटार्क की ओर देखती हुई) तब तो मेरा यही" गोविंदगुप्त-भद्रे ! तुम अपना स्पष्ट परिचय दो। विजया-मैं अपराधिनी हूँ। मातृगुप्त-परंतु तुम्हारा और भी कोई परिचय है ? विजया-यही कि बंदी होने की अभिलाषिणी हूँ। कमला-वत्से ! तुम अकारण क्यों दुःख उठाती हो विजया-मेरी इच्छा - मुझे वंदी कीजिये ! मै अपना परिचय न्यायाधिकरण मे दूंगी-यहाँ कुछ न कहूंगी। यहां मेरा अपमान किया जायगा तो आर्यराष्ट्र के नाम पर तुम लोगों पर अभियोग लगाऊंगी। गोविंदगुप्त-क्यों मटार्क ! यदि तुम्ही कुछ कहते"." भटार्क- मैं कुछ नही जानता कि यह कौन है। मुझे भी विलंब हो रहा है शीघ्र न्यायाधिकरण मे ले चलिये। मुद्गल और वृद्धा कमला ? गोविंदगुप्त-यह बंदी नहीं है, परंतु एक बार स्कंद के समक्ष इसे चलना होगा। मातृगुप्त-तो फिर सब चलें-अभिषेक का समय भी समीप है। [सब जाते हैं/दृश्यान्तर] ? स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४६९