पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९०

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- सप्तम दृश्य [उज्जयिनी की राजसभा/बंधुवर्मा, भीमवर्मा, मातृगुप्त तथा मुद्गल के साथ एक ओर से स्कंदगुप्त का और दूसरी ओर से गोविंदगुप्त का प्रवेश] स्कंदगुप्त-(बीच में खड़े होकर) तान ! कहाँ थे ? इस बालक पर अकारण क्रोध करके कहां छिपे थे ? (चरण-बंदना करता है) गोविंदगुप्त-उठो वत्स | आर्य चंद्रगुप्त की अनुपम प्रतिकृति । गुप्तकुल- तिलक ! भाई से मैं रूठ गया था, परंतु तुमसे कदापि नही, तुम मेरे आत्मा हो वत्स ! (आलिंगन करता है) [अनुचरियों सहित देवकी का प्रवेश/स्कंदगुप्त चरणवंदना करता है] देवकी-वत्स । चिरविजयी हो । देवता तुम्हारे रक्षक हो। महाराजपुत्र ! इसे आशीर्वाद दीजिये कि गुप्तकुल के गुरुजनो के प्रति यह विनयशील रहे। गोविदगुप्त-महादेवी ! तुम्हारी कोख से पैदा हुआ यह रत्न-यह गुप्तकुल के अभिमान का चिह्न -सदैव यशोमंडित रहेगा ! स्कंदगुप्त-(बंधुवर्मा से) मित्र मालवेश ! बढो, सिंहासन पर बैठो ! हम लोग तुम्हारा अभिनंदन करे । [जयमाला और देवसेना का प्रवेश जयमाला--देव ! यह सिंहासन आपका है, मालवेश का इस पर कोई अधिकार नही। अर्यावर्त के सम्राट के अतिरिक्त अब दूसरा कोई मालव के सिंहासन पर नही बैठ सकता। ['मालव की जय की तुमुल ध्वनि] बंधुवर्मा-(हँसकर) सम्राट् | अब तो मालवेश्वरी ने स्वयं सिंहासन त्याग दिया है, और मै उन्हे दे चुका था, इसलिए सिहासन ग्रहण करने मे अब विलंब न कीजिये। गोंविदगुप्त-वत्स इन आर्य-जाति के रत्नो की कौन-सी प्रशंसा करूं। इनका स्वार्थ-त्याग दधीचि के दान से कम नही । बढो-वत्स ! सिहासन पर बैठो, मैं तुम्हारा तिलक करूं। स्कंदगुप्त - तात | विपत्तियो के बादल घिर रहे है, अंतविद्रोह की ज्वाला प्रज्ज्वलित है, ऐसे समय में केवल सैनिक बन सकूँगा, सम्राट् नही । गोविंदगुप्त-आज, आर्य-जाति का प्रत्येक बच्चा सैनिक है-सैनिक छोड़कर और कुछ नहीं। आर्य-कन्याये अपहरण की जाती है, हूणों के विकट तांडव से पवित्र भूमि पादाक्रात है; कही देवता की पूजा नही होती-सीमा की बर्बर जातियो की राक्षसी वृत्ति का प्रचंड पाखंड फैला है। ऐसे समय आर्य-जाति तुम्हे पुकारती है- - ४७०: प्रसाद वाङ्मय