पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९१

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सम्राट् होने के लिए नहीं, उदार-युद्ध में सेनानी बनने के लिए-सम्राट (गोविंदगुप्त और बंधुवर्मा हाथ पकड़कर स्कंदगुप्त को सिंहासन पर बाते हैं।भीमवर्मा छत्र लेकर बैठता है|देवसेना चमर करती हैं/गरुडध्वज लेकर बंधुवर्मा खड़े होते हैं/देवकी राजतिलक करती है/गोविंदगुप्त खड्ग का उपहार देते हैं/चक्रपालित गरुडांकित राजदंड देता है) गोविंदगुप्त-परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री स्कंदगुप्त की जय हो ! सब-(समवेत स्वर से) जय हो ! बंधुवर्मा-आर्य-साम्राज्य के महाबलाधिकृत महाराजपुत्र गोविंदगुप्त की जय हो ! (सब वैसा ही कहते हैं) स्कंदगुप्त-आर्य ! इस गुरुभार उत्तरदायित्व का सत्य से पालन कर सकू, और आर्यराष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व अर्पण कर सकू, आप लोग इसके लिए भगवान् से प्रार्थना कीजिये और आशीर्वाद दीजिये कि स्कंदगुप्त अपने कर्तव्य से-स्वदेश- सेवा से, कभी विचलित न हो। गोविंदगुप्त-सम्राट् ! परमात्मा की असीम अनुकम्पा से आपका उद्देश्य सफल हो। आज गोविंद ने अपना कर्तव्य पालन किया। वत्स बंधुवर्मा ! तुम इस नवीन आर्थराष्ट्र के संस्थापक हो। तुम्हारे इस आत्मत्याग की गौरवगाथा आर्य-जाति का मुख उज्ज्वल करेगी। वीर ! इस वृद्ध में साम्राज्य के महाबलाधिकृत होने की क्षमता नहीं, तुम्ही इसके उपयुक्त हो । बंधुवर्मा-आर्य ! अभी आपके चरणों में बैठ कर यह बालक स्वदेश सेवा की शिक्षा ग्रहण करेगा। मालव का राजकुटुंब-एक-एक बच्चा-आर्य जाति के कल्याण के लिए जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत है । आप जो आज्ञा देंगे, वही होगा। [धन्य-धन्य का घोष] स्कंदगुप्त -तात ! पर्णदत्त इस समय नहीं ! चक्रपालित-सम्राट् ! वह सौराष्ट्र की चंचल राष्ट्रनीति की देख-रेख में, लगे हैं। [कुमारदास रूपी धातुसेन का प्रवेश] मातृगुप्त-सिंहल के युवराज कुमार धातुसेन की जय हो ! [सब आश्चर्य से देखते हैं] स्कंदगुप्त-कुमारदास-सिंहल के युवराज धातुसेन ! मातृगुप्त-हां महाराजाधिराज ! स्कंदगुप्त-अद्भुत ! वीर युवराज ! तुम्हारा स्नेह क्या कभी भूल सकता हूं? आओ, स्वागत ! (सब मंचों पर बैठते हैं) स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४०१