पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९२

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गोविदगुप्त-बंदियों को ले आओ। [सैनिकों के साथ भटार्क, शर्वनाग, विजया तथा कमला का प्रवेश] स्कंदगुप्त- क्यो शर्व ! तुम क्या चाहते हो ? शर्मनाग-सम्राट् ! वध की आज्ञा दीजिये, मेरे जैसे नीच के लिए और कोई दंड नही है। स्कंदगुप्त -नहीं, मैं तुम्हे इससे भी कडा दंड दूंगा, जो वध से भी उग्र होगा। शर्वनाग-वही हो सम्राट् ! जितनी यंत्रणा से यह पापी प्राण निकाला जाय, उतना ही उत्तम होगा। स्कंदगुप्त -परतु मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ, क्षमा करता है। तुम्हारे अपराध ही तुम्हारे मर्मस्थल पर सैकडो बिच्छुओ के डक की चोट करेगे। आजीवन तुम उसी यंत्रणा को भोगो, क्योकि रामा-साध्वी रामा को-मैं अपनी आज्ञा से विधवा न बनाऊंगा | सती रामा ! तेरे घृण्य से तेरा पति, आज मृत्यु से बचा ! [रामा सम्राट का पैर पकड़ती है] शर्मनाग-दुहाई सम्राट् की--मेरे वध की आज्ञा दीजिये, नही तो आत्महत्या करूंगा। ऐसे देवता के प्रति मैने दुराचरण क्यिा-ओह ? [छुरी निकालना चाहता है] स्कंदगुप्त -ठहरो शर्व | मै तुम्हे आजीवन वदी बनाऊँगा। [रामा आश्चर्य और दुःख से देखती है] स्कदगुप्त -शर्व | यहाँ आओ। (शर्व समीप आता है) देवका-वन्म । इसे किमी विषय का शासक बनाकर भेजो, जिसमे दुखिया रामा को किसी प्रकार का कष्ट न हो । [समवेत कंठ से-महादेवी की जय हो] स्कंदगुप्त -शर्व ! आज से नुम अनर्वेद के विषयपति नियत किये गये। यह लो-(खड्ग देता है) शर्मनाग--(खड्ग लेते रुद्ध कंठ से) सम्राट् । देवता ! आप की जय हो ! (देवकी के पैर पर गिर कर) मुझे क्षमा करो माँ | मैं मनुष्य से पशु हो गया अब तुम्हारी ही दया से मै मनुष्य हुआ। आशीर्वाद दो जगद्धात्री कि देव- चरणो मे आत्मबलि देकर जीवन को सफल करूं। देवकी-उठो गर्व ! (क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती) प्रतिहिंसा-पाशव धर्म है। उठो, मैं तुम्हे ममा करती हूँ। (शर्व खड़ा होता है) - था ४७२: प्रसाद वाङ्मय