पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९४

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तृतीय अङ्क प्रथम दृश्य ? ? -क्या? [शिप्रा तट]] प्रपंचबुद्धि-सब विफल हुआ। इस दुरात्मा स्कदगुप्त ने मेरी आशाओ के भडार पर अर्गला लगा दी। कुसुमपुर मे पुरगुप्त और अनंतदेवी अपने विडंबना के बिना बिता रहे है। भटार्क भी बंदी हुआ, उमके प्राणो की रक्षा नहीं। क्रूर कर्मो की अवतारणा मे भी एक बार सद्धर्म को उठाने की आकांक्षा थी, परंतु वह दूर गया। (कुछ सोचकर) उग्रतारा की माधना से विकट कार्य भी सिद्ध होते है, तो फिर इम महाकाल के महास्मशान मे बढकर कौन उपयुक्त स्थान होगा ! चलं- (जाना चाहता है/भटार्क का प्रवेश) भटार्क-भिक्षुगिरोमणे ! प्रणाम ! प्रपंचबुद्धि कौन, भटार्क ? अरे मै क्गा स्वप्न देख रहा हूँ भटार्क -नही आर्य-मै जीवित हैं । प्रपंचबुद्धि--उसने तुम्हे मूली पर नही चढाया भटार्क- नही, उससे बढकर ! प्रपंचबुद्धि - भटार्क-मुझे अपमानित करके क्षमा किया। मेरी वीरता पर एक दुर्वह उपकार का बोझ लाद दिया। प्रपंचबुद्धि-तुम मूर्ख हो । शत्रु से बदला लेने का उपाय करना चाहिये, न कि उसके उपकारों का स्मरण । भटार्क-मै इतना नीच नही हूँ ! प्रपंचबुद्धि-परंतु मै तुम्हारी प्रवृत्ति जानता हू--तुम इतने उच्च भी नही हो । चलो एकांत मे बाते करें। कोई आता है। (दोनों जाते हैं) विजया - (प्रवेश करते) मैं कहाँ जाऊँ। उस उन्छृखल वीर को मैं लौह- शृंखला पहना सकूँगी-अपने बाहुपाश मे उसे जकड सकूँगी ? हृदय के विकल मनोरथ-आह ! (गाती है) उमड़ कर चली भिगोने आज तुम्हारा निश्चल अंचल छोर नयन जल-धारा रे प्रतिकूल देख ले तू फिरकर इस ओर हृदय की अंतरतम मुसक्यान कल्पनामय तेरा यह विश्व लालिमा में लय हो लवलीन निरखते इन आँखों की कोर- - ४०४:प्रसाद वाङ्मय