पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९७

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विशेष साधन हैं-छल, कपट, विश्वासघात कृतघ्नता और पैने अस्त्र । इनसे भी बढ़कर प्राण लेने की कलाकुशलता। देखा जायगा, भटार्क ! तुम जाते कहाँ हो ! (प्रस्थान) [दृश्यांतर] द्वितीय दृश्य . [स्मशान-साधक के रूप में प्रपंचबुद्धि दूर से स्कंदगुप्त आता है] स्कंदगुप्त-इस साम्राज्य का बोझ किसके लिए ? हृदय में अशांति, राज्य में अशांति, परिवार में अशांति ! केवल मेरे अस्तित्व से ? मालूम होता है कि सब को-विश्व-भर की-शांति-रजनी में मैं ही धूमकेतु हूँ, यदि मै न होता तो यह संसार अपनी स्वाभाविक गति से - आनंद से, चला करता। परंतु मेरा तो निज का कोई स्वार्थ नहीं, हृदय के एक-एक कोने को छान डाला--ही भी कामना की वन्या नहीं-बलवती आशा की आँधी नहीं चल रही है। केवल गुप्त-सम्राट् के वंशधर होने की दयनीय दशा ने मुझे इस रहस्यपूर्ण क्रिया-कलाप में संलग्न रक्खा है। कोई भी मेरे अंतःकरण का आलिंगन करके न गे सकता है, और न तो हंस सकता है । तब भी विजया"..? ओह ! उसे स्मरण करके क्या होगा ! जिसे हमने सुख-शर्वरी की संध्या-तारा के समान पहले देखा, वही उल्कापिंड होकर दिगत-दाह करना चाहती है । विजया ! तूने क्या किया । (प्रपंचबुद्धि को देखकर) ओह ! कैसा भयानक मनुष्य है। कैसी कर आकृति है-मूतिमान पिशाच है ? अच्छा, मातृगुप्त तो अभी तक नहीं आया। छिप कर देखू । [छिपता है/विजया के साथ देवसेना का प्रवेश देवसेना -आज फिर तुम किस अभिप्राय से आई हो ? विजया-और तुम राजकुमारी? क्या तुम इस महाबीभत्स स्मशान में आने से नही डरती हो? देवसेना-संसार का मूक शिक्षक- स्मशान-क्या डरने की वस्तु है ? जीवन की नश्वरता के साथ ही सर्वात्मा के उत्थान का ऐमा सुन्दर स्थल और कौन है ? [नेपथ्य से गान] सब जीवन बीता जाता है। धूप-छाँह के खेल-सदृश-सब० समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुषार-कण में, हमें लगा कर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है -सब० बुल्ले, लहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है -सब० स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४७७