पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४९९

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तृतीय दृश्य [मगध के राजमंदिर में अनंतदेवी, पुरगुप्त, विजया और भटाक] पुरगुप्त--विजय-पर-विजय ! देखता हूं कि एक बार वंक्षुतट पर गुप्त-साम्राज्य की पताका फिर फहरायेगी। गरुड़ध्वज वंक्षु के रेतीले मैदान मे अपनी स्वर्ण-प्रभा का विस्तार करेगा। अनंतदेवी-परन्तु तुमको क्या ? निर्वीर्य-निरीह बालक ! तुम्हे भी इसकी प्रसन्नता है ? लज्जा के गर्त मे डूब नही जाते-और भी छाती फुला कर इसका आनन्द मनाते हो ! विजया-अहा ! यदि आज राजाधिराज कहकर युवराज पुरगुप्त का अभिनंदन कर सकती! भटार्क-यदि मै जीता रहा तो वह भी कर दिखाऊँगा ! दौवारिक-(प्रवेश करके) जय हो ! एक चर आया है। भटार्क-ले आओ । (दौवारिक जाकर चर को लिवा लाता है) पर पंगज की जय हो ! भटार्क-तुम कहाँ से आये हो ? चर-नगरहार के हूण स्कंधावार से । भटार्क- -क्या संदेश है ? चर-सेनापति खिगिल ने पूछा है कि मगध कि गुप्तपरिषद् क्या कर रही है ? उसने प्रचुर अर्य लेकर भी मुझे ठीक समय पर धोखा दिया है। परंतु स्मरण रहे कि अबकी हमारा अभियान सीधे कुमुमपुर पर होगा स्कंदगुप्त का साम्राज्य-ध्वंस तो पीछे होगा - पहले कुसुमपुरी का मणि-रत्न-भांडार लुटा जायगा। प्रतिष्ठान, चरणाद्रि तथा गोपाद्रि के दुर्ग-पतियों को विद्रोह करने के लिए धन-परिषद् की आज्ञा से भेजा गया था, उसका क्या फल हुआ ? अंतर्वेद के विषयपति की कुटिल दृष्टि ने उस रहस्य का उद्घाटन करके वह धन भी आत्मसात् कर लिया और सहायता के बदले हम लोग प्रवंचित हुए, जिससे हूणों को सिंधु का तट भी छोड़ देना पड़ा। भटाके-ओह ! शर्वनाग ने बड़ी मावधानी से काम लिया ! आचार्य प्रपंचबुद्धि का निधन होने से यह सब दुर्घटना हुई है। दून ! हूणराज से कहना कि पुरगुप्त को सम्राट् बनाने में उन्हें अवश्य सहायता करनी पडेगी । चर-परंतु उन्हें विश्वास कैसे हो? भटार्क- मैं प्रमाण-पत्र दूंगा। हूणो को एक बार ही भारतीय सीमा से दूर करने के लिए स्कंदगुप्त ने समस्त सामंतों को आमंत्रण दिया है। मगध की रक्षक स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४७९